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अध्यात्मरण का कारण
प्रकरण में यह कहा जा रहा है कि जो जहाँ ठहरता है वह उस ही में प्रीति करता है, और उनमें ही सुख की कल्पना करके बार - बार भक्ति का यत्न करता है और आनन्दधाम जो निस्वरूप है उसकी और झांककर भी नही देखता है। लेकिन जब दृष्टि बदल जाती है, अध्यात्म में श्रद्वा उत्पन्न हो जाती है तब बाह्रा पदार्थो से हटकर एक निज शुद्ध स्वरूप की और ही रति हो जाती है। तब चिन्तन और मनन के अभ्यास के बाद सहज शुद्ध आनन्द का अनुभव होने लगता है। अब उसे बाह्रापदार्थ रंच भी रूचिकर नही रहते है। क्या वजह है कि यह योगी अपने मे ही रम रहा है और बाहर में नही रमना चाहता? इस प्रश्न का उत्तर इस श्लोक में दिया है। जिसे अपने स्वरूप में ही रति है वह वही रहकर आनन्द पाया करता है ।
अगच्छंस्तद्विशेषेणामनभिज्ञश्च जायते ।
अज्ञाततद्विशेषस्तु बद्वयते न विमुच्यते । ।44 ।।
विशेषो के अनुपयोग से बन्धन का अभाव जिस मनुष्य का उपयोग जिस विषय में चिरकाल तक रहता है उसकी उस विषय में ही प्रीति हो जाती है, फिर वह पुरूष उस ही मे रमता है। उस विषय के सिवाय अन्य किसी भी जगह उसका चित्त नही जाता है। जब उसकाचित किसी अन्य विषय में नही जाता है तो उन विषयो की विशेषतावो का भी वह अनभिज्ञ रहता है। विशेषताएँ क्या है यह वस्तु सुन्दर है, यह असुन्दर है, इष्ट है, अनिष्ट है, मेरा है, तेरा है आदि जो विशेषतावो की सतरगें है वे कहाँ से उठे ? जब उस विषय के सम्बन्ध में उपयोग दिया ही नही जा रहा है तो वे विशेष कहाँ से उत्पन्न होगे। जब वे विशेष उत्पन्न नही हुए अर्थात् परपदार्थ के सम्बंध मे इष्ट अनिष्ट भावना न हुई तो यह जीव बँधता नही है बल्कि बात्मसंयम होने के कारण मुक्त हो जाता है ।
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स्नेह का गुप्त, विलक्षण, दृढ़ बन्धन लोक में भी देख लो, जिसको इष्ट माना उसी का बन्धन लग गया। आप सब यहाँ बैठे है, प्रदेशो में न घर बँधा है, न स्वजन परिजन बँधे है, सब पदार्थ अपने अपने स्थान में है, लेकिन चित्त उनमें है, उनका स्नेह है तो आप घर छोड़कर नही जा सकते। यह बन्धन कहाँ से लग गया? न कोई रस्सी का बंधन है, न सांकल का बन्धन है, न कोई पकड़े हुए है। यह ही खुद स्नेह परिणमन से परिणमकर बँध जाता है। इस पदार्थ का विशेष ज्ञान न हो तो स्नेह क्यों होगा, चारूदत्त सेठ जब लोकव्यवहार की बातो से परे रहता था, उसकी निष्काम प्रवृत्ति थी विवाह हो जाने पर भी वह अपने केवल धर्मसाधना मे ही रहता था । तब परिवारने चिंता की यह तो घर में रहते हुए भी विभक्त है, ऐसे कैसे घर चलेगा तो उपाय रचा। वह उपाय क्या था, किसी से स्नेह का परिणमन तो आ जाय । न घर में सही, पर एक वह प्रगति तो बन जाय कि यह स्नेह करने लगे। उपाय ऐस ही किया । वैश्या की गली में से उसका चाचा
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