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________________ लगाएँ? इस कारण समस्त परको उपयोगसे हटाकर विश्राम पाये तो परमतत्व स्वयं दृष्ट हो जायगा। दुर्लभ अल्प जीवनका सदुपयोग – भैया ! जीवन थोड़ा है, कुछ वर्षोकी जिन्दगी है। हम बडे-बड़े शास्त्रसिद्वान्तोको जाने तो 10-5 वर्ष तो भाषा सीखने में ही लगेंगे, और फिर एकसे एक बड़े घुरन्धर शब्द शास्त्रके विद्वान पड़े है। उनमें भी कोई कुछ अर्थ लगाते है, कोई कुछ अर्थ लगाते है, कोई कुछ। तो हमे किसीकी नही सुनना है, किसीकी नही मानना है, परम विश्रामसे बैठे, ईमानदारीमें रंच भी बाधा मत डालें। समस्त परद्रव्य भिन्न है, कोई मेरा अहित नही कर सकते। इस निर्णयको रंच भी न भूलें। यदि किसी परपदार्थमें हितबुद्धि की तो अपने आपके बल से धर्मका पता लगानेका कोरा ढोगं ही हैं इतना निर्णय हो तब अपने आप स्वयके विश्रामसे स्वंयमें वह ज्ञानज्योति प्रकट होगी जो निष्पक्ष सब समाधानोको हल कर देगी। ज्ञानमयकी अनुभूतिमे आनन्दविकास - न होता यह मैं ज्ञानमय तो जान कहाँसे लेता? जो पदार्थ ज्ञानमय नही है वह कदाचित् जान ही नही सकता है। ऐसा कोई भी उदाहरण दो कि अमुक पदार्थ ह तो ज्ञानरहित, पर जान रहा है। नही उदाहरण दे सकते। जो ज्ञानमय है, ज्ञानघन है वही जाननहार बन सकता है। यह मै आत्मा ज्ञानमय हूं और ज्ञान करना है यथार्थ धर्मका। तो जिसके जाननेका स्वभाव है वह जानेगो ही, वही बात जो यथार्थ है, हाँ रागद्वेष मोहका पुट होगा, श्रद्वा विपरीत होगी तो यह ज्ञानकला विफल हो जायगी पर श्रद्वा यर्थाथ हो, परपदार्थो से अलगाव हो तो यह ज्ञान सही काम करेगा, तब अपने आपके ज्ञान द्वारा ही यह ज्ञानस्वरूपका अभ्यास करने लगेगा, और उस स्थिति में अद्भूत आनन्द प्रकट होगा। मनोविनयसे आनन्दका उद्यम - जो आनन्द ज्ञानानुभूतिमे होता है वह आनन्द भोजन पानकी समृद्वि में नही मिलता, क्योकि उस प्रसंगमें विकल्पजाल निरंतर बने रहते है। एक ग्रास मुँहमें से नीचे गया, झट दूसरे ग्रासकी कल्पना हो उठती है, यह कल्पनावोकी मशीन बहुत तेजीसे चलती रहती है। एक क्षणमेंही कितनी ही कल्पनाएँ कर डालते है और यह उपयोग कितनी जगह दौड़ आता है, बडी तीव्र गति है इस मनकी। इस मनका नाम किसी ने अश्व रक्खा है। अश्व उसे कहते है जो आशु गमन करे, जो शीघ्र गमन करे। नाम किसीका कही नही है। इस मनका नाम अश्व है। किसी जमानेमें लोगोने अलंकार में मनोविजयका नाम अश्वमेघ यज्ञ रख दिया होगा, इस मनको वशमे करके जहाँ एक आध क्षण विश्राम लिया जाता है तो उसे बड़ा अद्भुत आनन्द प्रकट होता है। बस उसमें सब निर्णय हो जाता है कि हमको क्या करना है? शान्ति के लिए बस ज्ञाताद्रष्टा रहना, रागद्वेष रहित बनना, यही एक धर्मका पालन है। 191
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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