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रखता है, परपदार्थो से मेरा हित है, बड़प्पन है ऐसी जो प्रतीति रखता है उसके जीवपर महासंकट है, परन्तु मोही प्राणी मोहमें इस संकटको ही श्रृगार समझते है। पागलपन इसीको ही तो कहतें हे कि दुनिया तो हँसे ओर यह उस ही में राजी रहे। ज्ञानी जन तो हँसे, जो पागल नही है वे तो मजाक करें अथांत् उन्हे हेय आचरणसे देखें और एक पागल उस धुनमें ही मस्त रहे। यहाँ जितने भी मोहमत्त जीव है वे सब उन्मत्त ही तो है। जो ज्ञानी पुरूष है, विवेकी है वे इसकी मोह बुद्विपर हास्य करते है। कहाँ रम गया है, कहाँ भूल पड़ गयी है, और यह मोही पुरूष उन ही विषयोमें रमता है। क्या करे यह मोही प्राणी जब उस निर्मोहताका आनन्द ही नही मिल सका. अपने आपमें ज्ञानका परूषार्थ हीनही कर पा रहा है तो यह कही न कही तो रमेगा ही। रमेगा विषयोमें तो वह विषयोमें ही प्रीति रखेगा। और उन विषयो के सिवाय अन्य जगह जायगा नही। इसे ज्ञान ध्यान तप आदि शुभ प्रसंग भी नही सूझेगे।
धर्मपालकी निष्पक्ष पद्वति - आत्मका हित, आत्माक धर्म, जिसको पालन करनेसे नियमसे शान्ति प्राप्त होगी वह धर्म कही बाहर न मिलेगा। कोई निष्पक्ष बुद्विसे एक शान्ति का ही उद्देश्य ले ले और विशुद्व धर्मपालन करनेकी ठान ले तो वह सब कुछ अपने ज्ञानस्वरूपका निर्णय कर सकता है। कभी यह धोखा हो कि सभी लोग अपने-अपने मजहबकी गाते है, कहाँ जाकर हम धर्मकी बात सीखे? जिस कुलमें जो उत्पन्न हुआ है वह उस ही धर्म की गाता है। जो जिस कुलमें, धर्ममे उत्पन्न हुआ वह रूढ़िवश उसी धर्म और कुलकी गाता है पर कहाँ है धर्म, किस उपायसे शन्तिका मार्ग मिल सकेगा? संदेह हो गया हो और संदेह लायक बात भी है। अपने - अपने पक्षकी ही सब गाते है, संदेह होना किसी हद तक उचित ही है। ऐसी स्थितिमें एक काम करे। जिस कुलमें, जिस धर्ममें आप उत्पन्न हुए है उसकी भी बात कुछ मत सोचे, जो कोई दूसरे धर्मोकी बात सुनाता हो उनको भी मत सुने। पर इतनी ईमानदारी अवश्य रक्खे, इतना निर्णय कर ले कि इस लोक में जो समागम मिले है धन वैभव, स्वजन, मित्रजन, ये सब भिन्न है और असार है, इतना निर्णय तो पूर्ण कर ले। इसमें किसी मजहबकी बात की आयी, यह तो एक देखी और अनुभव की हुई बात है।
उदासीनतामें अन्तस्तत्वका सुगम दर्शन - धन, कुटुम्ब, घर, इज्जत, ये सब चीजे चंद दिनोकी बाते है, मायामयी है। सदा रहना नही है, मरने पर ये साथ निभाते नही है और जीवोके भी ऐसे अनुभव हे कि जो कुछ मिला है वह सिद्वि करने वाला नही है। इन सब अनुभवोके आधारपर इतना निर्णय करलें कि समस्त परपदार्थ मेरे हितरूप नही है, न्यारे है, उनका परिणमन मुझमें हो ही नही पाता। ऐसा निर्णय करनेके बाद किसी भी धर्म, किसी भी पक्ष मजहबकी बात ने सुनकर बस आरामसे कुछ क्षणके लिए बैठ जाएँ। कुछ नही किसीकी सुनना है, सब अपनी-अपनी गाते है। हम कहाँ सच्चाई ढूँढने के लिए दिमाए
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