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________________ परिस्थितियो में हितविधिका अन्वेषण - भैया ! अन्तरमें या बाहरमें परमार्थतः इस जीवको कहाँ कष्ट है, परन्तु दृष्टि बाहर में फंसायी तो वहाँ कष्ट ही है। परिजन अधिक न हो, अकेले हो तो यह जीव अपनेमे कष्ट मानता हे कि मै अकेला हूं, दुनियाके लोग किस तरह रहते है? अरे अकेले रह गये तो यह बड़े सौभाग्यकी बात है, अकेले रह जाना हर एक को नसीब नही है यह संसार कीचड़ है। यह समागम एक बेढब वन है अपना यथार्थ अनुभूत हो जाए और स्वतः अकेलापन आ जाय तो यह बड़े अच्छे होनहारकी बात है धर्मपालन होता है तो अकेले होता है, अनुभव से होता है। मोक्षमार्ग मिले तो अकेलेहोता है, मोक्ष प्राप्त होता है तो अकेलेसे होता है कौनसी बुराई आयी अकेले रह जाने में? यह भी स्थिति अच्छेके लिए आती है, पर उसका सदुपयोग करे, लाभ उठाये तब ना। धन बहुत हो गया है तो बड़ी किल्लत हो गयी। इतनी हो गयी है कि सम्भाले भी नही सम्भलती है अनेक द्वारोसे यह धन बरबाद होने लग रहा है, सम्भालते ही नही बनता है। बड़ा दुःखी होता है जब सुनते हे कि वहाँ इतनेका टोटा हो गया, इतना खर्च हो गया तो बड़े चिन्तित होते है। अरे चिन्ताकी क्या बात है? बिगड़ गया तो बिगड़ने दो, घट गया तो घटने दो। कहां घट गया? जो पदार्थ है वह तो नही गुम गया, मिट क्या गया? जहां होगा वही चैनसे । तुम्हारा क्या बिगड़ गया? ममता छोड़ो, सारे संकट मिट गए। ममताका अनौचित्य - भैया ! जितने भी संकट है वे सब ममताके कारण होते है। काहेके लिए ममता करते हो? अपनेको लाभ तो कुछ है नही। अपने लाभके संदर्भमें तो ममताकी जरूरत ही नही है। जो लोग यहां के समागममें ममत्व रखते है वे इसलिए रखते है कि दुनियाके मनुष्य हमको कुछ अच्छा समझे, अच्छा कह दे।अच्छा तुम्ही निर्णय दो कि ये सब दुनियाके लोग जिनमें तुम अच्छा कहलवाना चाहते हो ये सब ज्ञानी है या अज्ञानी? मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि? खुद कर्मोके चक्करमें फंसे हुए है या देवता है सो निर्णय कर लो। मूढ़ है, पर्यायबुद्वि है। अज्ञानी है, पापकलंकसे भरे हुए है। इन मूढोने राजा है। जैसे कोई लोग कहने लगते हे कि हम बदमाशोके बादशाह है, तो इसका अर्थ क्या हुआ? सबसे ऊँचे दर्जेका बदमाश। इस तरह हम इस अज्ञानी जगत में कुछ अपनेको अच्छा कहलवाना चाहते है और इन अज्ञानी लोगोने कुछ अच्छा कह दिया और उसमें ही हम खुश हो गए तो अर्थ यह हुआ कि हम मूढो के सिरताज बनना चाहते है। सब अपने आपमें सोच लो। सभी तो मोही जगत है। इससे बुरा रंच भी न मानियोगा, क्योकि यह सब तो विरक्त होनेकी भावना से कहा जा रहा है। योगीका उन्नयन - क्षुधा, तृषा, रोग, वियोग आदिका कष्ट तब बहुत अधिक मालूम होने लगता है जब यह उपयोग आत्मस्वरूपसे चिगकर बाहृा पदार्थो लग जाता है। जब यह जीव बाहृापददर्थो की वासना तज देता है, बाहृापदार्थो के रागसे विरक्त हो जाता है तो भूख प्यास, परीषह रोग आदि वेदनाका अनुभव नही होता। वह तो अब स्वरूपमें मग्न है, 100
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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