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________________ उसकी नकलमें बाधा डाले तो स्कूलसे बाहर निकलनेके बाद फिर मास्टरकी ठुकाई पिटाई भली प्रकार कर दी जाती है। क्या पवित्र सम्बन्ध रहा? उसका समाधान यह है कि वहाँ न कोई गुरू है न कोई शिष्य है गुरू बन सकना और शिष्य बन सकना बहुत कठिन काम है। न हर एक कोई क गुरू हो सकता है और न हर एक कोई शिष्य हो सकता है। गुरू शिष्यका इतना पवित्र सम्बन्ध है कि जिसके आधारसे संसारके ये समस्त संकट सदाके लिए टल सकते है, सम्यक्त्वकी भावना, सम्यक्त्वका प्रकाश उदित हो सकता है। बाकी और समस्त सम्बंध केवल स्वार्थके भरे हए सम्बन्ध है। बहिर्मुखी दृष्टि में विपदा- इन बाहा पदार्थो में, इन परिजन और मित्रजनोमे जब चित्त रहता है तो यह जीव कष्टका अनुभव करनेवाला बन जाता है। खूब बढ़िया भी खाने को मिले तो भी यह अनुभवमें चलता है कि अब फिर भूख लगी। लोलुप गृहस्थ जन तीन बार खाये फिर भी बार-बार क्षुधाकी वेदना अनुभूत होती है। ऐसे ही चाहे सर्व प्रकारके समागम उचित रहे, पैसा भी खूब आ रहा है, इज्जत भी चल रही है तब भी कुछ न कुछ विकल्प बनाकर अपना कष्ट अपनी विपदा समझने लगते है, यह सब बहिर्मुखी दृष्टि होने के कारण विपदा आती है। एक चैतन्य चिन्तामणिको प्राप्त कर ले उपयोग द्वारा फिर कोई संकट नही रह सकताहै। अन्तर्मुखी दृष्टि करो विपदा टालो- देखो। गंगा यमुना नदियों में जलचर जीव अनेक होते ही है। कोई कछुवा पानीके ऊपर सिर उठाकर तैरता हुआ जाय तो उसकी चोंचको पकड़नेके लिए दसों पक्षी झपटते है, चारों औरसे परेशान करते है। जब तक वह कछुवा अपनी चोंच बाहरमें निकाले है तब तक उसकी कुशल नही है। अनेक सताने वाले है और जब वह अपनी चोंचको पानी में ड्वो लेता है, भीतर ही भीतर तैरता रहता है, मौज ह उसे फिर कोई संकट नही रहता है। ऐसे ही यह आत्मस्वरूप अपना निज घर है। इससे बाहर अपना उपयोग निकला कि सर्व कल्पना जालोके संकट इसपर छा जाते है। उन समस्त संकटोके दूर करनेका उपाय मात्र इतना है कि अपने उपयोग को अपने आत्मस्वरूप्में लगा ले। बाहा परिस्थिति कैसी भी हो, परवाह न करो- बाहा परिस्थितियोमे जिसका उपयोग लगा है वह हर स्थिति मे कष्ट अनुभव किया करता है। किन्तु है वे सब स्थितियाँ कष्ट न अनुभव करनेके योग्य। घरमं कुटुम्ब ज्यादा बढ़ गया तो कष्ट अनुभव किया जात है। अरे बढ़ गया है तो बढ़ जाने दो, सबके अपना-अपना भाग्य है, वे लड़ते है तो लड़ जाने दो, गिरते है तो गिर जाने दो, सीधे चलते है तो सीधे चलने दो, तुम योग्य शिक्षा दो तुम्हारी शिक्षा के अनुकूल वे चलते है तो उनका भला है, नही चलते है तो तुम ममता करके अपने जीवनका धार्मिक श्रृंगार क्यों खोते हो? 99
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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