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________________ आनन्दका अपूर्व मधुर रसपान कर रहा है, विकार भावो से अत्यन्त दूर रह रहा है। ऐसे आत्माके आचरणमें रहनेवाले अध्यात्मयोके अनन्तगुणी निर्जरा और कर्मोका क्षय चलता रहता है, क्योकि उसकी चित्तवृत्तिका भली प्रकार निरोध हो गया है। अब यह अपने आत्मस्वरूपकी और झुका हुआ है। जिसको अपने अंतस्तत्वकी दृष्टि है उस योगी के पुण्य और पाप निष्फल होते हुए स्वयं गल जाते है। उस योगी का निर्वाण होता है फिर कभी भी ये कर्म पनप नही पाते है। जो योगी तद्भवमोक्षगामी नही है, जिसके संहनन उत्कृष्ठ नही है, किन्तु ध्यानका अभ्यास बनाए है, आत्मतत्वके चिन्तनमें अपना उपयोग लगाये है उसके कर्मोका सम्वर और कर्मोकी निर्जरा होती है। ज्ञान प्रताप - आत्मा और अनात्माका जब भेदविज्ञान प्रकट होता है तो उस भेदविज्ञानमें जो अपूर्व आनन्द बरसता है उस आनन्द मग्न योगी पुरूष बड़े कठिन घोर तपश्चरणको भी करते हुए रंच भी खेद नही मानते है क्योकि उनका उपयोग तो सहजानन्द स्वरूप अंतस्तत्वमें लगा हुआ है। वहाँ वह ध्यान ध्याता ध्येय तीनों एक रूप परिणत हो रहे है। वह आत्मस्थ है। उत्तम संहननका धारी हो तो एसे ही ध्यान के प्रतापसे चार घातिया कर्मोको दूर कर सकलपरमात्मा हो जाता है। उसमें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति प्रकट हो जाती है, फिर अंतमें तपश्चरण करके सिद्ध प्रभु हो जाता है। यह सब एक ज्ञानका प्रताप है। जिन्हे समस्त संकट दूर करना है उनका कर्तव्य है कि वे तत्वज्ञानका अभ्यास बनाएँ। कटस्य कर्ताहमिति सम्बन्धः स्याद्वयोर्द्वयोः । ध्यानं ध्येयं यदात्मैव सम्बन्धः कीदृशस्तदा ।।24।। अद्वैतमें सम्बन्धकी असंभावना – अध्यात्मयोग में जब वही आत्मा तो ध्यान, करने वाला है वही आत्मा ध्येयभूत है तो ऐसी स्थिति यह कैसे बताया जा सकता है कि वह योगी किसका ध्यान करता है। लोक में निमित्तनैमित्तिक प्रसंगमें कोई दो चीजें सामने है तब उनका सम्बन्ध बोल दिया जाता है। जैसे घड़ा बनाने वाला कुम्हार ऐसा संकल्प कर सकता है कि मै घड़ेका कर्ता हूं, चटाई बनानेवाला कारीगर भी ऐसा विकल्प किया करता है कि मैं चटाईका कर्ता हूं, दो चीजें भिन्न-भिन्न है इसलिए इन दोनोका परस्पर में सम्बन्ध बताया जाता है, संयोगकी बात कही जाती है और जब वह संयोग न हो तो वे अलग-अलग ही यथापूर्व बने रहते है परन्तु जहाँ ध्यान भी आत्मा, ध्येय भी आत्मा आत्मासे भिन्न जहाँ ध्यान आदि कोई तत्व नही है तब उनका संयोग आदिक सम्बन्ध कैसे कहा जा सकता है? स्वतन्त्र पदार्थमें सम्बन्धका अभाव - आत्मा एक स्वतंत्र पदार्थ है और वह प्रति समयमें कुछ न कुछ रूप परिणमता ही रहता है। कुछ भी यह न परिणमें तो आत्माका 101
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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