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अस्तित्व भी नही रह सकता है। जगतमें कौनसा पदार्थ ऐसा है कि सत्ता तो उसकी हो और कुछ परिणमन उसमें हुआ ही न करे ऐसा लोकमें कोई भी पदार्थ हो ही नही सकता। जो होगा वह नियमसे किसी न किसी रूप अपनी परिणति रखा करेगा। तो यह आत्मा भी प्रतिसमय परिणमता रहता है कभी ये बाह्रा विकल्पोका आश्रय तोड़कर अपने आपके ध्यानरूप परिणमा करतें है । जब यह जीव समस्त बाह्रा विकल्पोंको तोड़कर अपने आपके ध्यानरूपसे परिणमता है तो वहाँ यह तो बताओ कि वह आत्मा किसका क्या कर रहा है? वहाँ कोई दो बातें ही नही है ।
ज्ञानके विषयभूत परपदार्थमें भी ज्ञप्ति क्रिया का अप्रवेश - प्रथम तो जब बाहापदार्थों का भी चिन्तन ध्यान करना हो, उस कालमें भी यह बाह्रा पदार्थो का कर्ता नही है । वहाँ भी वह अपने ही किसी प्रकारके ध्यानरूप परिणम रहा है। खैर, बाह्रापदार्थोके विकल्पमें तो आश्रमभूत परपदार्थ भी है किन्तु जहाँ शुद्ध आत्मतत्वका ध्यान चल रहा हो वहाँ दो तत्व कौनसे कहे जाये जिसमें यह बनाया जाए कि यह अमुक का ध्यान करता है, यह अमुक का। अपनेकी ध्यानरूपसे परिणाम रहा है वह ज्ञानप्रकाश, शुद्ध ज्ञानप्रकाशरूप चल रहा है यह इस ही पदार्थ को भेदोपचार करके यों कह दिया जाता है कि आत्मा अपने स्वरूपका ध्यान करता है।
परमार्थमें परस्पर संबधंका अभाव ध्यान शब्दमें यह लोक अर्थ पड़ा हुआ है कि जिसका ध्यान आ जाय, जिसके द्वारा ध्यान किया जाय जो ध्यान करता है तो इस अर्थ में जिसका ध्यान किया गया वह पदार्थ और जो ध्यान करता है वह पदार्थ कोई भिन्न-भिन्न हो तो बता भी दे कि आत्माने अमुकका ध्यान किया है, पर जिस समय आत्मा के ध्यान अवस्थामें यह परमात्मस्वरूप स्वयं आत्मा जब ध्यानके साथ एकमेंक हो जाता है, स्वंय ही स्वयं के ज्ञानरूपसे प्रकाशित हो जाता है तब वहाँ किसी परद्रव्यका संयोग ही नही है फिर सम्बंध क्या बताया जाय? सम्बन्ध तो बनावटी तत्व है। वास्तवमें तो कही भी कुछ संम्बध नही है, प्रत्येक स्वतंत्र है, वह अपने आपमें अपना परिणमन करता है। वे सब अपने आपकी शक्ति का ही परिणमन करते है कोई पदार्थ किसी दूसरे का न परिणमन करता है, न उपभोग करता है और न कुछ संबधं भी है फिर किसको किसका बताया जाय ?
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मूढ़ता व अशान्ति व ढीठता का अभाव - भैया ! यह जीव ज्ञानवाला है, इससे कह रहा है कि मकान मेरा है, यह अमुक मेरा है। इस प्रकार मेरा-मेरा मचाता है। यदि मकानमें भी जान होती तो यह भी यों कह देता कि यह पुरूष मेरा है। अरे न मकानका यह आत्मा है, न आत्माका यह मकान है। मकान ईट भीतोका है। यह पुरूष मेरा है । अरे न मकानका यह आत्मा है, न आत्माक यह मकान है, मकान ईट भींतोका है। यह पुरूष अपने स्वरूप में है, दृष्टि देकर जरा निरख लो अपना शरण, बाह्रादृष्टि में कुछ पार न जायगा। बाहर सार क्या है? जब समागम है तब भी समागमसे शान्ति नही है और जब समागमका वियोग होगा
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