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________________ और दुःखकारी मालूम होते है। कौनसी चीज ऐसी है जिसमें नियमरूप से सुख की मान्यता ला सके? ये सांसारिक भोग उपभोग, सांसारिक सुख सुखरूप से बन रहे थे, वे ही सब कुछ थोडे समय बाद दुःखरूप में परिणत हो जाते है। बहुतसी ऐसी घटनाएँ होती है। कि शादी विवाह हुआ, दो चार साल तक बड़े आराम से रहे, मानो एक के बिना दूसरा जिन्दा नही रह सकता, कुछ साल गुजर जाते है तो लडाई होने लगती है, आमना सामना नही होता है, माना तलाकसी दे देते है। तो कौन सी ऐसी स्थिति है जिसमें यह नियम बन सके कि यह सुखदायी स्थिति है? सब केवल वासनामात्र से सुखरूप मालूम होता है। सुख का दुःखरूप में परिणमन - यह सुख थोडे ही समय बाद दुःखरूप परिणत हो जाता है। मान लो पति पत्नी 50-60-70 वर्ष तक एक साथ रहे, खूब आनन्द से समय गुजरा, पर वह समय तो आयगा ही कि या तो पति पहिले गुजरे या पत्नी पहिले गुजरे। उस ही समय वह सोचता है कि सारी जिन्दगी में जितना सुख भोगा है उतना दुःख एक दिन में मिल गया । ये सभी सुख कुछ ही समय बाद दुःखरूप मालूम होते है। भोजन करना बड़ा सुखदायी मालूम होता है, करते जावो डटकर भोजन तो फिर वही दुःखका कारण बन जाता है। रोग पैदा हो जाता है पेट दर्द करता है, विहलता बनी रहती है। संसार में भी सुख के भोगने का हिसाब सबके एकसा ही बैठ जाता है। जैसे खाने को हिसाब सबका एकसा बैठ जाता है। चाहे चार दिन खूब डटकर बढिया मिष्ट भोजन करलो और फिर 10 दिन केवल मूंग की ही दाल खाने को मिलेगी। तो अब हिसाब में 14 दिनका एवरेज लगालो और कोई आदमी 14 दिन रोज सात्विक भोजन करे और साधारण अल्प भोजन करे तो वह भी एवरेज एकसा ही बैठ गया। इन भोगविषयोको कोई बहुत भोग भोगले तो अंत में दुर्गति होती है और कोई मनुष्य इन भोगो को विवकेपूर्वक थोडा ही भोगता है। वास्तविक आनन्द के लाभ का उपाय - इन भोगो में वास्तविक सुख नही है। वास्तविक आनन्द तो निराकुल परिणति में है। वह कैसे मिले? अपना स्वरूप ही निराकुल है ऐसे भान बिना निराकुलता प्राप्त नही हो सकती। अपने आपको तो गरीब समझ रहा है यह जीव और निराकुलता की आशा करे तो कैसे हो सकता है? उसे कुछ पता ही नही है कि ये जगत के बाहा पदार्थ है, ये जैसे परिणमते हों परिणमें, उनसे मेरा कोई बिगाड़ नही है यह मैं तो स्वभाव से शुद्ध सच्चिदानन्दरूप हूं| ऐसे निज निराकुल स्वरूप का भान हो तो इस ही स्वरूप का आलम्बन करके यह निराकुलता प्राप्त कर सकता है। और यह निराकुल पद मिले तो फिर उस ही स्वरूप में स्थित रहता है। उस पद में न बुढापा है, न मरण है, न इष्ट का वियोग है, न अनिष्ट का संयोग है, न ज्वर आदिक कोई रोग है, सब संकटो का वहाँ विनाश है। करणीय आशा - भैया ! ऐसे सुख की क्या लालसा करें जिस सुख में सुख का भरोसा ही नही है। थोडा सुख मिला, फिर दुःख आ गया, और इस ही सुख के पीछे दुःख आता रहता है, तो ऐसे सुख की क्यों आशा करे, तो उस आनन्दकी आशा करें जिसके प्रकट होने पर फिर कभी संकट नही आता है। वह सुख कर्मो के सर्वथा क्षय से उत्पन्न 22
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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