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होता है आत्मा से उत्पन्न होता है, उसमें किसी भी प्रकार की बाधा नही न उसमें कोई दुःख का संदेह है, ऐसा जो आत्मीय आनन्द है उसका किसी समय तो अनुभव कर लो। घर मे, दुकान में, मन्दिर में किसी जगह हो किसी क्षण सर्वसे भिन्न अपने को निरखकर अपने आपको निर्विकल्प अनुभव का कुठ स्वाद तो ले लो। इस अनुभ्ज्ञव का स्वपाद आने पर यह जीव कृतार्थ हो जायगा, इसे फिर आपत्ति न रहेगी। आपत्ति तो मोह में थी। अमुक पदार्थ यों नही परिणमा तो आपत्ति मान ली। अब जब कि तत्व विज्ञान हो गया है तो उसमें यह साहस है कि अमुक पदार्थ यों नही परिणमा तो बलासे, वह उस ही पदार्थ का तो परिणमन है। मै तो सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा स्वभावतः कृतार्थ हूं मुझको परपदार्थ में करने योग्य काम कुछ भी नही है। यह परमें कुछ कर भी नही सकता है, ऐसा तत्वज्ञान हो जाने पर, आत्मीय रस का अनुभव हो जाने पर फिर इसे कहाँ संकट रहा? संकट तो केवल अपनी भ्रमभरी कल्पना में है।
सांसारिक सुख में आस्था की अकरणीयता - इस श्लोक से पहिले श्लोक में व्रतो का फल बताने के लिए देवो के सुख की प्रशंसा की गयी थी, लेकिन प्रयोजन प्रदर्शनवश भी की गई झूठी प्रशंसा कब तक टिक सकती है? इसके बाद के श्लोक में यह कहना ही पड़ा कि वह सारा सुख केवल वासनाभरका है, वास्तव में वह चित्त को उद्वेग ही करने वाला है। ऐसे सुख मे आस्था न रखकर एक सच्चिदानन्दस्वरूप निज आत्मतत्व में उपयोग को लगाना ही श्रेयस्कर है।
मोहेन संवृतं ज्ञानं स्वभावं लभते न हि।
मत्तः पुमान पदार्थानां यथा मदनकोद्रवैः ।।7।। मोहीका अविवेक - मोह से ढका हुआ ज्ञान पदार्थो के यर्थाथ स्वभाव को प्राप्त नही कर पाता है अर्थात् स्वभाव को नही जान सकता है, जैस कि मादक कोदो के खाने से उन्मत्त हुआ पुरूष पदार्थ का यथावत भाग नही कर पाता है जैसे मादक पदार्थो पान करने से मनुष्य का हेयका और उपादेयका विवेक नष्ट हो जाता है, उसे फिर पदार्थ का सही ज्ञान नही रहता। जैसे पागल पुरूष कभी स्त्री को माँ और स्त्री भी कहता है और किसी समय माँ को माँ भी कह दे तो भी वह पागल की ही बात है, इसी तरह मोहनीय कर्म के उदयवश यह जीव भी अपने शुद्ध स्वरूप को भूल जाता है, उसे हेय और उपादेय का सच्चा विवेक नही रहता है। जो अपनी चीज है उसको उपादेय नही समझ पाता, जो परवस्तु है उसको यह हेय नही समझ पाता। उपादेय को हेय किए हुए है और हेय को उपादेय किए हुए है।
अमीरी और गरीबी - भैया !अपने स्वरूप का यथावत भान रहे, उसकी तरह जगत में अमीर कौन है? जिसको अपने स्वरूप का भान नही है उसके समान लाके में गरीब कौन है। गरीब वह है जिसके अशांति बसी हुई है और अमीर वह है जिसके शान्ति बसी हुई है। धन सम्पदा पाकर यदि अशान्ति ही बस रही है, उस सम्पदा के अर्जन मे, रक्षण में या उस सम्पदा के कारण गर्व बढाने में अशान्ति बनी हुई है तो उस अशान्ति से तो वह गरीब ही