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है । अमीर वह है जिसे शान्ति रहती है । शान्ति उसे ही रह सकती है जो पदार्थो का यथावत ज्ञान करता है। जो पुरूष अपने से सर्वथा भिन्न धन वैभव सम्पदा के स्त्री पुत्र मित्र आदिक में आत्मीयत्व की कल्पना कर लेता है, यह मै हूं यह मेरा है, इस तरह का भ्रम बना लेता है, दुखःकारी सुखो को भोगो को भी सुखकारी मान लेता है तो उसे फिर यह अपना आत्मा भी यथावत् नही मालूम हो सकता। यह मोही जीव को अपना आत्मा नाना रूपों प्रतिभासित होता है मै अमुक का दादा हूं, पिता हूँ, पिता हूँ, पुत्र हूँ, इस कल्पना में उलझकर अपने स्वरूप को भुला देता है।
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मोह में विचित्ररूपता यह मोही जीव अपने को यथार्थ एकस्वरूप निरख नही पाता । मोहवश यह अपने को न जाने किन-किन रूप मानता है? जब जैसी कल्पना उठी तैसा मानने लगता है जैसे डाक के सम्बन्ध से दर्पण में अनकेरूप दिखने लगते है, लाल कागज लगावो तो वह मणि लाल दिखती है, उसके पीछे लाल-हरा जैसा कागज लगावो तैसा ही दिखने लगता है। ऐसे ही नाना विभिन्न कर्मो का सम्बंध आत्मा के साथ है। सो जिस-जिस प्रकार का सम्बंध है उससे आत्मा नाना तरह का दिखता है, लेकिन जैसे उस स्फटिक मणि से उपाधि हटा दी जाय तो जैसा वह स्वच्छ है तेसा ही व्यक्त प्रतिभास में आता है। ऐसे ही जब आत्मा से द्रव्यकर्म का भावकर्म का सम्बंध छूटता है तो वह अपने इस शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मातत्य को प्राप्त कर लेता है, फिर उसे यह चैतन्यस्वरूप अखण्डस्वरूप अनुभव में आता है।
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अचरजभरा बन्धन देखो भैया कितनी विचित्र बात है कि यह आत्मा तो आकाशवत् अमूर्त है। इस आत्मा में किसी परद्रव्य का सम्बन्ध ही नही होता, लेकिन कर्मों का बन्धन ऐसा विकट लगा हुआ है ऐसा एक क्षेत्रावगाह है, निमित्तनैमित्तिक रूपतन्त्रता है कि आत्मा एकभव छोड़कर दूसरे भरव में भी जाय तो वहाँ भी साथ ये कर्म जाते है। यह क्यों हो गया कर्मबन्धन इस अमूर्त आत्मा के साथ? देख तो रहा है, अनुभव में आ तो रहा है यह सब कुछ, यही सीधा प्रबल उत्तर है इसका। मै ज्ञानमय हूँ इसमें तो कोई संदेह ही नही, जो जाननहार है वह ही मै हूं । अब कल्पना करो कि जाननहार पदार्थ रूपी तो हो नही सकता। पदार्थ को किस विधि से जाने कुछ समझ ही नही बन सकती है। पुद्गल अथवा रूपी जानन का काम नही कर सकता है वह तो मूर्तिक है, रूप, रस, गंध, स्पर्श का पिंड है, उसमें जानने की कला नही है, जाननहार यह मैं आत्मा अमूर्त हूं। इसमें ही स्वंय ऐसी विभावशक्ति पड़ी हुई है कि पर उपाधिका निमित्त पाये तो यह विभावरूप परिणमने लगता है और विभाव का निमित्त पाये तो कार्माणवर्गणा भी कर्मरूप हो जाती है, ऐसी इसमें निमित्तनैमित्तिक बन्धन है।
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मूर्च्छा की पति यह ज्ञान मोह से मूर्छित हो जाता है। कैसे हो जाता है मूर्छित ? तो क्या बताए उसकी तो नजीर ही देख लो काई पुरुष मदिरा पी लेता है तो वह क्यों बेहोश हो जाता है? उसका ज्ञान क्यों मूर्छित हो जाता है? क्या सीसीकी मदिरा ज्ञान के स्वरूप में घुस गयी है? कैसे वह ज्ञान मूर्च्छित हो गया है, कुछ कल्पना तो करो। यह कल्पना निमित्तनैमित्तिक बंधन है, वहां यह कहा जा सकता है कि उस मदिरा के पीने के
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