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निमित्त से ज्ञान मूर्छित नही होता है किन्तु पौद्गलिक जो द्रव्येन्द्रियाँ है वे द्रव्येन्द्रियाँ मूर्छित हो गयी है। जैसे डाक्टर लोग चमड़ी पर एक दवा लगा देते है जिससे उतनी जगह शून्य कर दे, ऐसे ही मदिरा आदि का पान इन्द्रियों को शून्य कर देने में निमित्त है, वह ज्ञान को बिगाड़ने मे निमित्त नही है। अच्छा न सही ऐसा, वह मदिरा द्रव्येन्द्रिय के बिगाड़ने में ही निमित्त सही, पर द्रव्येन्द्रिय बिगड़ गयी तो वह तो निमित्त है ना ज्ञान के ढकने का, मूर्छित होने का और बिगड़ने का। ऐसे ही सही, पर मदिरापान होने से यह ज्ञान मूर्छित हो गया है। फिर यह मोहनीय कर्म तो बहुत सूक्ष्म और प्रबल शक्ति रखने वाला है। उसके उदय का निमित्त पाकर यह ज्ञान मूर्छित हो जाय तो इसमें कोई आश्चर्य नही है । ऐसा निमित्त नैमित्तिक सम्बंध है। मदिरा जैसे बोतल में रक्खी हुई है तो उसे पीने वाले पुरूष के ज्ञान को मूर्छित करने में वह मदिरा निमित्त है, बोतल को मूर्छित कर देने में निमित्त नही है। उस काँच में मूर्छित होने के शक्ति, कला व योग्यता नही है। तो वहाँ भी यह देखा जाता कि जो मूर्छित हो सकता है वह मदिरा के निमित्त से मूर्छित हो सकता है। इसी तरह कर्मो के उदय के निमित्त से मूर्छित हो सकने वाले पदार्थ ही मूर्छित हो सकते है। शराब पीने से ज्ञान की मूर्छित हुई दशा में मस्त पुरूष को जैसे हेय और उपादेय का विवेक नही रहता है ठीक इसी तरह जो आत्मा मोह में ग्रस्त है वह अपने स्वरूप से गिर जाता है और नाना प्रकार के विकारी भावो में घिर जाता है, कर्मो से बँध जाता है।
विडम्बनाओ के विनाश का सुगम उपाय - जैसे बहुत बड़ी मशीन के चलाने और रोकने का पेंच एक ही जगह मामूली सा लगा है, कमजोर पुरूष भी दबा और उठा सकते है, चला सकते है, बन्द कर सकते है, ऐसे इतनी बड़ी विडम्बना संसारमें हो रही है, जन्म हो, मरण हो, जीवनभर अनके कल्पनाएँ की, अनके कष्टो का अनुभव किया, इतनी सारी विडम्बनाएँ है किन्तु उन सब विडम्बनावों के विनाश का उपाय केवल एक अपने आपके सहज स्वरूप का अनुभवन है, दर्शन है। इसके प्रताप से भावकर्म भी हटते है, द्रव्य कर्म भी हटते है, और यह शरीर भी सदा के लिए पृथक हो जाता है। सर्व प्रकार का उद्यम करके अपन सबको करने योग्य काम एक यह ही है कि अपने सहजस्वरूप का अवलोकन करे, दर्शन करे, अनुभवन करे, उसमें ही अपने उपयोग को लीन करके सारे संकटो से छुटकारा पाये।
कर्मबन्धन की अनादिता - यह आत्मा परमार्थतः अपने स्वरूपमात्र है, लेकिन अनादिकाल से यह कर्मबधनं से ग्रस्त है, विषय कषाय के विभावों से मलिन है, इस कारण इन मूर्त कर्मो से वह बंधन को प्राप्त हो रहा है। कब से इस जीव के साथ कर्म लगे है और कब से इस जीव के साथ रागद्वेष लगे है इसका कोई दिन मुकर्रर किया ही नही जा सकता है, क्योकि रागद्वेष जो आते है वे कर्मो के उदय का निमित्त पाकर आते है। कर्मो का उदय तब हो जब कर्म सत्ता में हो। कर्म सत्ता में तब हो जब कर्म बँधे, कर्म तब बधे जब रोगद्वेष भाव हो तो अब किसको पहिले कहोगे? इस जीव के साथ पहिले कर्म हैं पीछे रोगद्वेष हुए? ऐसा कहोगे क्या? अथवा इस जीव के साथ रागद्वेष तो पहिले थे पीछे कर्म बधे? ऐसा कहोगे क्या? दोनो में से कुछ भी नही कह सकते।