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द्रव्यकर्म व भावकर्म में किसी की आदि मानने में आपत्ति यदि जीव में रागद्वेष पहिले थे, कर्म पीछे बँधे तो यह बतावो कि वे रागद्वेष जो सबसे पहिले थे वे हुए कैसे? यदि जीव में अपने आप सहज हो गए तो यह जीव कर्मो से छूटने के बाद एक बार वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा होने के बाद भी अगर यो ही सहज रागद्वेष आ गए तो ऐसी मुक्ति का क्या करें कि जिसमें किसी प्रकार एक बार संकट से छूट पाये थे और अब संकट से घिर गये, इस कारण यह बात नही है कि जीव में रागद्वेष पहिले थे, कर्मबधं न था, रागद्वेषके कारण फिर कर्म बंधना शुरू हुआ, यह नही कहा जा सकता । यदि ऐसा कहेगे कि जीव के साथ कर्म बंध पहिले था, उसके उदय में ये रागद्वेष हुए है। तो वह बतलावो कि जब जीव में सबसे पहिले कर्म बधं था, तो वह कर्म बंध हो कैसे गया ? रागद्वेष हुए है। तो वह बतलावो कि जब जीव में सबसे पहिले कर्म बंध था, तो वह कर्म बंध हो कैसे गया? किस कारण से हुआ या बिना कारण के हुआ । किस कारणसे हुआ यह तो कह न सकेगें इस प्रसंग में क्योकि सबसे पहिले कर्म बंध जायेगे तो फिर इससे संसार में रूलना होगा, फिर मुक्ति का स्वरूप ही क्या रहा, इससे न भाव - कर्म ही सर्वप्रथम हुआ कह सकते और न द्रव्य कर्म को ही सर्वप्रथम हुआ कह सकते ।
द्रव्यकर्म व भावकर्म की अनादित पर दृष्टान्त द्रव्यकर्म, भावकर्म की अनादिता समझने के लिये एक दृष्टान्त लो - आम के बीज से आम का पेड़ उगता है, आप सब जानते है और आम के पेड़ से आम का बीज उत्पन्न होता है। आम के फल के बीज से आम वृक्ष हुआ, आम वृक्ष से आम का फल हुआ तो आप अब यह बतलावो कि वह लगा हुआ फल कहाँ से आया? आम के पेड़ से और वह आम का पेड़ कहाँ से आया? आम के फल से और वह आम का फल कहाँ से आया? आम के वृक्ष से, इस तरह बोलते जावो, कहानी पूरी हो ही नही सकती। कोई फल ऐसा नही था जो कभी पेड़ से न हुआ था और कोई पेड़ ऐसा नही था जो कभी बीज से न हुआ था। तो जैसे बीज और वृक्ष इन दोनों की परम्परा अनादि से चली आ रही है उसमें किसे पहिले रक्खोगे, ऐसे ही जीव और कर्म का एक सम्बधं कि कर्म से रागद्वेष हुए, रागद्वेष से कर्म बँधे, यह सम्बधं अनादि से चल रहा है। अच्छा बतावो आज जो बेटा है वह किसी पिता से हुआ ना, और वह पिता अपने पिता से हुआ। क्या कोई ऐसा भी पिता किसी समय हुआ होगा जो बिना पिता के से टपककर आया हो या यह किसी और तरह पिता हुआ हो, बुद्धि में नही आता ना। तो जैसे यह संतान अनादि है इसी प्रकार यह जीव और कर्म का संम्बध भी अनादि है।
द्रव्यकर्म व भावकर्म के अनादि सम्बन्ध होने पर भी विविक्ता
भैया ! जीव और
कर्म का बन्धन अनादि फिर भी ये दोनों तत्व भिन्न भिन्न है, और ऐसा उपयोग बन जाय सही तो कर्म जुदा हो सकते है । और आत्मा केवल विविक्त हो सकता है। जैसे खान में जो सोने की खान है वहाँ स्वर्ण पाषाण निकलता है उसमे वह स्वर्ण किस समय से बना हुआ है? ऐसा तो नही है कि पलि वहाँ अन्य किस्म का कोरा पत्थर था, पीछे स्वर्ण उसमें जड़ाया गया हो? वह पाषाण तो ऐसा ही स्वर्णपाषाण रहा आया है, उस पाषाण में स्वर्ण का संम्बध चिरकाल से है, जबसे पाषाण है तब से ही है, लेकिन उसे तपाया जाय या जो
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