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________________ प्रक्रिया की जाती है वह की जाय तो वह स्वर्ण उस पाषाण स े अलग हो जाता है । जैसे तिल में तैल बतावो किस दिन से आया है, क्या कोई नियम बना सकते हो कि कबसे आया? वह तो व्यक्तरूप से जब से तिलका दाना शुरू हुआ है, बना है तबसे ही उसमें तैल है। तो जब से तिल है तबसे उस दाने में तैल है। रहे आवो शुरू से दोनो एकमेंक, लेकिन कोल्हू में पेले जाने के निमित्त से तिल अलग नजर आता है और तेल अलग नजर आता है, ऐसे ही ये जीव और कर्म दोनो अनादि से बद्ध है लेकिन सम्यदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र के प्रताप से यह जीव विविक्त हो जाता है और ये सब कर्म और नोकर्म जुदे हो जाते है। जब यह जीव द्रव्यकर्म और भावकर्म दोनो से मुक्त हो जाता है, फिर कभी भी कर्मों से नही बँधता । परिस्थिति और कर्तव्यशिक्षा यहां यह बतला रहे है कि जब यह कहा गया था कि ये सुख केवल वासना मात्र है, ये है नही, परमार्थतः तो स्वभाव ही अपना है। तो फिर यह जीव इस परमार्थ भूत स्वभाव को क्यों नही प्राप्त कर लेता है, इस आंशका के समाधान में यह बताया गया है कि मोह के उदय से यह आत्मा अपने स्वरूप से च्युत हो जाता है, विवेक फिर नही रहता । विवेक न रहने के कारण पदार्थ का स्वरूप यथार्थ परिज्ञान नही हो पाता है। जब अपना अंतस्तत्व न जान पया जो यह बाह्रा उपयोगी रहा, बहिरात्मा रहा, वहाँ य परपदार्थ में यह मेरा है, यह मै हूँ, ऐसी विधि से कल्पना बनाता रहा। अज्ञान दशा में यह बहिरात्मा दशा जब तक रहती है तब तक यह ज्ञानी अंतस्तत्व का ज्ञान नही कर पाता, इस कारण मिथ्यात्व त्यागकर ज्ञानी होकर परमात्मपद का साधन करना चाहिए । इससे इस मिथ्या सुख दुःख से परे शुद्ध आनन्द प्रकट हो जायेगा । वपुर्गृहं धनं दाराः पुत्रा मित्राणि शत्रवः । - सर्वथान्यस्वभावानि मूढः स्वानि प्रपद्यते ।। 8 ।। मूढमान्यता मोह से मूर्छित हुआ यह अज्ञानी प्राणी कैसा बाह्रा में भटकता है कि जो जो पदार्थ सर्वथा अपने से भिन्न स्वभाव वाले है उन परपदार्थों को यह मैं हूं इस प्रकार मानता फिरता है। शरीर घर, धन, स्त्री, पुत्र मित्र और कहां तक कहा जाय, शत्रु को भी मोही जीव अपना मानता है । कहते है कि यह मेरा शुत्र है, उसे अपना माना है । शरीर क्या - जो शीर्ण हो, जीर्ण हो, गले उसका नाम शरीर है, यह तो सस्कृतं का शब्द है, उर्द में भी शरीर कहते है। जिसका प्रतिकूल शब्द शरीफ का है अर्थ सज्जन जिससे उल्टे शरीर का दुर्जन, बदमाश । तो यह शरीर शरीर है, दुर्जन है, बदमाश है, इससे कितना ही प्रेम करो, कितना ही खिलावो, कितना ही तेल फुलेल लगावो, कितनी ही सेवा करो, यह जब फल देता हे। तो बदबू पसीना आदि ऐब देता है। ये जितनी मूतियाँ दिखती है हम आपको ये सब बड़ी अच्छी देवतासी साफ सुथरी दिख रही है, सिर में तेल लगा है, बड़ा श्रंगार है, कपडे भी चमकीले है, किसी का चद्दर श्रंगार है, किसी का कोट । सजे-धजे देवता से सब बैठे है, पर ये सब भरे पूरे किस चीज से है उसका भी दर्शन कर 121 27
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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