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लो। अपनी ग्लानि अपने को जल्दी मालूम हो सकती है और दूसरे की भी। मोही जीव इस शरीर को अपना मानते है।
शरीर सेवा का कारण - जो बुद्विमान पुरूष होते है वे भी इस शरीर की सेवा करते है, वे भी स्वस्थ रहने के उपाय बनाते है, सयंत भोजन करते, संयमित दिनचर्या करते, सब कुछ स्वास्थ्य ठीक रखने का प्रोग्राम रखते है लेकिन शरीर की यह सेवा अपना मोह पुष्ट करने के लिए नहीं करते किन्तु इस शरीर को सेवक समझ कर इस शरीर से कुछ अपने आत्मा की नौकरी लेना है, कुछ आत्मा का हित करना है, केवल इस हितभाव से शरीर की सेवा करते है।
शरीर की अस्वस्थता - यह शरीर ममत्व के लायक नही है, यह अपने से अत्यन्त भिन्न स्वभाव वाला है। मै चेतन हूं, यह शरीर अचेतन है, इसको जो आपा मानता है उसी को तो बहिरात्मा कहते है। जो पुरूष इस शरीर को और आत्मा को एक मानता हे वह अज्ञानी है। कितने शरीर पाये इस जीव ने ? अनन्त। सबको छोड़कर आना पड़ा। उसी तरह का तो यह शरीर हैं। कितने समय तक रहेगा शरीर? आखिर इसे भी छोड़कर जाना होगा। जिसका इतना मोह कर रहे है यह शरीर कुटुम्बियो द्वारा, मित्रजनों द्वारा जला दिया जायगा। इसको क्या अपना मानना? क्या इस शरीर की सेवा करना? अपने अंतर में सावधानी बनाये रहो कि मै शरीर नही हूँ यह मूढ जीव ही इस शरीर को अपना बनाए फिरता है।
मूढ का गृह - घर का नाम है गृह । गृह उसे कहते है जो ग्रह ले, पकडले या जो ग्रहा जाय पकड़ा जाये। यह मोही जीव जिसको पकड़कर रह उसका नाम गृह हे। आप जिस घर के है कुछ कामवश घर छोडकर 10 साल भी बाहर रहे तो भी जब सुध आती है तो आप फिर अपने घर आ जायेंगे उसी का नाम घर है। ऐसे ही गृहणी है। गृह और गृहणी ये दानो जकड़ी जाने वाली चीजें है। प्रयोजनवश कितना भी दूर रह जायें पर गृह और गृहिणी यें दोनो नही छूटते है। किन्तु विरक्त ज्ञानी हो तो ये छूटते है, इस जीव का ज्ञानानन्दस्वरूप है, किन्तु मोही जीव विकट जकड़ा हुआ है इस गृह से। इस गृह को मूर्ख जीव मानते है कि यह मेरा है। घर तो इस आत्मा के साथ एक क्षेत्रावगाही भी नही है घर तो प्रकट अचेतन घर को भी यह मोही जीव अपना मानता है। कभी यह जिज्ञासा हो सकती है तो फिर क्या करे। क्या घर छोड़ दे। अरे भैया। छोडो अथवा न छोडा - छोड दो तो भी कुछ संकट नही है और न छोड़ सको कुछ काल तो भी कुछ मिथ्यात्व नही आ गया है, लेकिन सत्य बात जो है उसका प्रकाश तो रहना चाहिए। यह घर मेरा कुछ नही है।
धन - धन की भी निराली बात है। धन में परिजन को छोड़कर सब कुछ आ गये। सोना चाँदी, रूपया पैसा, गाय-भैस सभी चीजें आ गयी। ये सब भी प्रकट जुदे है। लेकिन कल्पना में ऐसे बसे हुए है कि ज्ञानप्रकाश के लिए भी कुछ ख्याल नही आता । छोडने की बात तो दूर रहो, पर किसी समय कुछ हिचकता भी नही धन की कल्पना करने मे, इस धन से भिन्न अपने को यह मोही नही मान पाता है।
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