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________________ शुद्ध दृष्टि में आम्ता की व्यक्ति – उक्त प्रकार से योग्य निज द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की प्राप्ति होने पर आत्मा में आत्मता प्राप्त होती है। जैसे लोग कहते है कि इन्सान वही है जिसमें इन्सानियत है। भला, इन्सानियत बिना भी कोई इन्सान होता है? नही होता है यहाँ इन्सानियत को केवल ईमान की चीज इतना ही अर्थ न किया जाय अर्थात् जिन परिणामों से इन्सान की शोभा है, इंसानियत की प्रगति है उन परिणामो का नाम इंसानियत कह लीजिए तो यह वाक्य प्रयोग में आने लगेगा कि जिसमें इंसानियत नही है, वह इन्सान ही नही है। इस इन्सान में इन्सानियत प्रकट हुई है तो क्या पहिले कभी इन्सानियत न थी? थी, किन्तु इन्सानियत का अर्थ भले प्रकार के आचार विचार वाले परिणाम है, वे अब प्रकट हुए है। ऐसे ही यहाँ यह कहा जा रहा है कि आत्मा से आत्मता प्रकट होती है। तो क्या यह आत्मता आत्मा से भिन्न थी? न थी, फिर भी आत्मा उसको माना गया है आदर दृष्टि में आ करके जो शुद्ध स्वभाव की दृष्टि करता है, मोक्षमार्ग में अपना कदम रखता है, ऐसे मोक्षमार्गी जीव को आत्मा शब्द से पुकारे और मोक्षमार्ग में चलने की जो पद्वति है उसको आत्मता माने तो यह आत्मता आत्मा से प्रकट होती है अर्थात् बहिरात्मत्व से निवृत्त होकर यह अन्तरात्मत्व प्रकट होता है। बहिरात्मत्व का परिहार होकर यह विवेक, उपयोग प्रकट होता है। अहिंसा आदि व्रतों का भली प्रकार पालन करने से स्वरूप की प्राप्ति होती है, यह सिद्वान्त सम्मत है। एक जिज्ञासा - यदि उत्तम द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की सामग्री मिलने से ही स्वरूप की उपलब्धि हो जाय तो अहिसा आदि व्रतो का करना व्यर्थ हो जायगा। एक यहाँ जिज्ञासा उत्पन्न हो रही है कि ऐसा सिद्वान्त बनाने में कि जब योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की, सामग्री मिलेगी तो स्वयं ही स्वरूप की प्राप्ति होगी, तब क्या तप करना, व्रत संयम करना, ये सब व्यर्थ की चीजें किसलिए की जाती है? समाधान में यह कह रहे है कि यहाँ यह नही समझना कि बाहा व्रत तप संयम और अंतरंग व्रत, तप, संयम को निरर्थक कहा गया है। स्वरूप की प्राप्ति के उद्यम में व्रत आदि का पालना निरर्थक नही है। उनके यथायोग्य पालन करने से पापकर्मो का निरोध हो जाता है और पहिले बंधे हुए कर्म निर्जरा को प्राप्त होते है। उनके और शुभोपयोगरूप परिणमते हुए के पुण्यकर्म का संचय होता है। जिसके उदयकाल में इष्ट सुखों की प्राप्ति अनायास हो जाती है इसी तरह योग्य चतुष्टयरूप उपादान के रहते हुए भी व्रतो का पालना निरर्थक नही है, इस बात को और स्पष्ट रूप से कह रहे है। वरं वृतैः पदं दैवं नाब्रतैवर्त नारकम् । छायातपस्थयोभेदः प्रतिपालयतोर्महान् ।।३।। अव्रतभाव से व्रतभाव की श्रेष्ठता - जैसे कोई पुरूष छाया में बैठकर अपने किसी दसरे साथी की बाट जोहे और कोई अन्य पुरूष गर्मी की धूप में बैठकर अपने साथी की बाट जोहें, उन दोनो बाट जोहने वालो में कुछ फर्क भी है कि नहीं? फर्क है वह फर्क यही है कि छाया में बैठकर जो अपने दूसरे साथी की राह देखता है वह पुरूष छाया में तो है, उसे छाया शान्ति तो दे रही है, और जो धूप में बैठा हुआ साथी की बाट जोह रहा है उसे
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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