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धूप से कष्ट हो रहा है। इसी तरह व्रत के अनुष्ठान से स्वर्ग आदि सुखों की वर्तना के बाद मोक्ष प्राप्त होता है और अव्रत से पहिले नरक के दुःख भोगने पड़ते है, फिर बात ठीके बने तो वर्तना के बाद मोक्ष प्राप्त होता है और अव्रत से पहिले नरक के दुःख भोगने पड़ते है, फिर बात ठीक बने तो मुक्ति प्राप्त होती हे। मुक्ति जाने वाले मानों दो जीव है, जायेंगें वे मुक्त, पर एक व्रताचरण में रह रहा है तो वह स्वर्ग आदि के सुख भोगकर बहुत काल तक रहकर मनुष्य बनकर योग्य करनी से मोक्ष जायगा । और कोई पुरूष पाप कर रहा है, अव्रतभाव में है। तो पहिले नरक के कष्ट भोगेगा, नरक के दुःखो को भोगकर फिर मनुष्य अपनी योग्य करनी से मोक्ष जा सकेगा। सो व्रत आदि करना निरर्थक नही है, वह जितने काल संसार में रह रहा है उतने काल सुख और शान्ति का किसी हद तक कारण तो यह व्रत बन रहा है ।
व्रत की सार्थकता यहाँ यह शंका की गई थी कि द्रव्य आदि चतुष्टय रूप सामग्री के मेल से आत्मस्वरूप की उपलब्धि हो जायगी तब ऐसे तो व्रत आदि का पालन करना व्यर्थ ही ठहरेगा। इस पर यह समाधान दिया गया है कि व्रतो का आचरण करना व्यर्थ नही जाता क्याकि अव्रत रहने से अनेक तरह के पापो का उर्पाजन होता है, और उस स्थिति में यह हित और अहित में विवेक से शून्य हो जाता है । पाप परिणामो में हित और अहित का विवेक नही रहता, तब फिर यह बढ़कर मिथ्यात्व आदि पापो में भी प्रवृत्ति करने लगता है, तब होगा इसके अशुभकर्म का बंध। उसके फल में क्या बीतेगी? उस पर नारकादिक की दुर्गतियां आयेंगी, घारे दुःख उठाना पड़ेगा, अव्रत परिणाम में यह अलाभ है किन्तु व्रत परिणाम में अहिंसा सत्य, अचौर्य, ब्रहाचर्य, परिग्रह त्याग की विशुद्धि प्राप्त होने से नारकादिक दुर्गतियो के घोर नष्ट नही सहने पड़ते है । क्योकि जो व्रतो के वातावरण में रहता है उसे हित और अहित का विवेक बना रहता है, पापो से वह भयभीत बना रहता है और आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए वह सावधान बना रहता है। होता क्या है कि व्रती पुरूष परलोक में स्वर्ग आदि के सुखो को चिरकाल भोगते हे । चिरकाल सुख भोगने के बाद क्षय होने पर ये मनुष्य बनते है और यहाँ भी योग्य जीवन व्यतीत करते हुए ये कर्मो का क्षय कर देते है और भावातीत बन जाते है व्रत और अव्रत में तो शान्ति अशान्ति तत्काल का भी फर्क है।
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व्रत कभी व्यर्थ नही जाता भैया ! जो वास्तविक पद्वति से व्रती होता है वह अशांत नही होता है किन्तु जो व्रती का बाना तो रख ले, पर अंतरंग में व्रत की पद्वति नही है, संसार शरीर और भोगो से विरक्ति नही है तो उस पुरूष को इन व्रतो से लाभ नही पहुंचता। वह व्रती हीं कहाँ है? वह तो अपने अंतरंग में अज्ञान का अंधेरा लादे है, इसी से वह दुःखी है, अशान्त है, व्रत करना तो कभी व्यर्थ नही जाता ।
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सदाचार से दोनो लोक में लाभ एक बार किसी पुरूष ने एक शंका की कि परभव को कौन देख आया है कि परभव होता है या नही, उस परभव का ख्याल कर करके वर्तमान में क्यो कष्ट भोगा जाय? कम खावो, गम खावो, व्रत करो, अनेक कष्ट भोगे जायें इनसे क्या लाभ है? तो दूसरा पुरूष जो परभव को मानने वाला था वह कहता है कि
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