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________________ भाई तुम्हारा कहना ठीक है कि परभव नही है किन्तु अब हम लोगो को करना क्या है? सत्य बोलें, कुशील से बचे, परिग्रह का संचय न करे, अहिंसा का पालन करे, किसी जीव को न सताये, यह करना है ना, तो देखो ऐसा योग्य व्यवहार जो करता है उस पर क्या दुनिया ने कोई आफत डाली है? जो चोर होते है झूठे व दगाबाज होते है, कुशील परिणामी होते है, परिग्रह के संचय का भाव रखते है ऐसे पुरूष पिटते है, दंड पाते है। तो अच्छे कामों के करने से इस जीवन में सुख है। यह तो केवल कहने कहने की बात है कि खूब आराम से स्वच्छन्द रहे, जब मन आये खाये, जब जो मन आये सो करे। मनुष्य जन्म पाया है तो खूब भोग भोगे, वे इनमें सुख की बात बताते है किन्तु सुख उन्हे है नही। आनन्द जिसे होता है वह अक्षुब्ध रहता है। वेषयिक सुखो की प्राप्ति के लिए तो बड़े क्षोभ करने पड़ते है और जब कभी सुख मिल भी जाय तो उस सुख का भोगना क्षोभ के बिना नही होता। उस सुख में भी इस जीव ने क्षोभ को भोगा, शान्ति को नही भोगा। तो उत्तम ब्रत आचरण करने से वर्तमान में भी सुख शान्ति रहती है और यदि परभव निकल आये तो परभव के लिये वह योग्य काम होता ही है, किन्तु पाप दुराचार के बर्ताव से इस जीवन में भी कुछ सुख-शान्ति नही मिलती और परभव होने पर परभव में जाना पड़े तो वहाँ पर भी अशान्ति के ही समागम मिलेगें, इस तरह व्रतो का अनुष्ठान करना व्यर्थ नही है। सुविधासमागम से अपूर्व लेने का अनुरोध - अरे भैया ! भली स्थिति में रहकर मोक्षमार्ग का काम निकाल लो। पापप्रवृत्ति में रहने से प्रथम तो मोक्षमार्ग में अन्तर पड़ जाता है और दूसरे तत्काल भी अशान्ति रहती है इस कारण ये व्रत आदि परिणाम मोक्षमार्ग के किसी रूप में सहायक ही है, ये व्यर्थ नही होते है, लेकिन यह बात अवश्य है कि मोक्षमार्ग शुद्ध दृष्टि से ही प्रकट होता है, अर्थात सम्यक्त्व हो, आत्मस्वभाव का आलम्बन हो तो मोक्षमार्ग प्रकट होता है। जिस आत्मा के आलम्बन से मोक्षमार्ग मिलता है वह आत्मा पाप पुण्य सर्व प्रकार के शुभ-अशुभ उपयोगो से रहित है, ऐसे अविकारी आत्मा में उपयोग लगाने से यह अविकार परिणमन प्रकट होता है। आनन्द है अविकार रहने में। ममता मे, कषाय में, इच्छा में, तृष्णा में शान्ति नही है। ऐसे इस शुद्ध ज्ञायकस्वरूप आत्मा का आलम्बन हो और बाहा में योग्य व्रत आदि हो, ऐसे जीवों को स्वभाव की प्राप्ति होती है। यत्र भावः शिवं दत्ते द्यौः कियदूदरवर्तिनी। यो नयत्याशु गव्यूतिं क्रोशार्दु किं स सीदति ।।4।। ___ शान्तिबललाभ के लिये क्लेशो के सिलसिला की सुध – संसार में नाना प्रकार के क्लेश भरे हुए है। किसी भव मं जावो, किसी पद में रहो, संसार के सभी स्थानो में क्लेश ही क्लेश है। कोई धनी हो तो वह भी जानता है कि मुझे सारे क्लेश ही क्लेश है, बाहा पदार्थो की रक्षा, चिन्ता जो अपने वश की बात नही है उसे अपने वश की बात बनाने का संकल्प, इस मिथ्याश्रय मं क्लेश ही क्लेश है। कोई धनी न हो, निर्धन हो तो वह भी ऐसा जानता है कि मुझे क्लेश ही क्लेश है। कोई संतानवाला है तो वह भी कुछ समय बाद समझ लेता है कि इन समागमों में भी क्लेश ही क्लेश है। ने हो कोई संतान तो वह भी अपने में दुख मानता है कि मुझे बहुत क्लेश है। तब और कौन सी स्थिति ऐसी है जहाँ 10
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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