________________
स्वभावावाप्ति के अन्तरंग कारण का दृष्टान्तपूर्वक समर्थन - दृष्टान्त में यह कहा गया है कि जैसे खान से निकलने वाले स्वर्णपाषाण में स्वर्णरूप परिणमन का कारण भूत जब वह सुर्योग्य होता है तो बाहा में कारीगरों द्वारा ताड़ना, तापना, पिटना, आदि प्रयोगो से वह स्वर्णपाषाण से अलग होकर केवल स्वर्ण कहलाने लगता है। अब उस स्वर्ण में स्वर्णपाषाण का व्यवहार नही रहता। वह तो सोना हो गया है, इस ही प्रकार अनादिकाल से कर्ममल से मलिन हुआ संसारी आत्मा के जब योग्य द्रव्य, योग्य क्षेत्र, योग्य काल और योग्य भावरूप साधनों की उपलब्धि होती है तो बाहरी तपस्या, धर्म पालन आदि जो बाहा विशुद्वि के साधन कहे गए है, उन साधनो के अनुष्ठान से, आत्मध्यान के प्रयोग से कर्मईधन भस्म हो जाते है और स्वात्मा की उपलब्धि हो जाती है। अपने आत्मा के लिए अपना आत्मा योग्यद्रव्य कैसा होता है जिसमें शुद्व परिणमने के योग्य परणिमन शक्ति आने लगती है।
उपादानभूत द्रव्य की योग्यता - इसे सुनिये द्रव्य में 2 प्रकार की शक्ति है - एक ध्रव शक्ति और एक अध्रव शक्ति। द्रव्य में शाश्वत सामान्य परिणमनरूप शक्ति तो ध्रुव शक्ति है और वह द्रव्य कब किस प्रकार परिणमने की योग्यता रखता है ऐसी शक्ति को पर्यायशक्ति कहते है। जैसे जीव में ज्ञान दर्शन आदि सामान्यशक्ति ध्रुवशक्ति है और मनुष्य के योग्य काम कर सके ऐसा बोले चाले खाये पिये व्यवहार करे, इस तरह के रागदिक भाव हो इस पद्वति की जैसी मनुष्यों के शक्ति होती है यह सब पर्यायशक्ति है। यह अध्रुव है, इस तरह की योग्यता मनुष्य के रहना ठीक ही है, मनुष्य मिट गया फिर यह प्रकृति नही रहती। तो जब कल्याणरूप परिणमन की योग्यता आती है तो वह है योग्य पर्यायशक्ति वाला द्रव्य । यह तो आंतरिक बात है। बाहा में योग्य गुरूजन, योग्य उपदेशक इत्यादि पदार्थो का समागम मिलता है और उस वातावरण मे, उस समागम में जो विशुद्वि हो सकती है उस विशुद्वि के लिए वे योग्य द्रव्य कारण पड़ते है। बाहा में भी योग्य द्रव्य मिल जायें
और अंतरग योग्य होने की पर्यायशक्ति प्रकट हो जाय ऐसे योग्यद्रव्य का उपादान होने पर अपने आप में स्वभाव की प्राप्ति स्वयं हो जाती है।
कल्याण योग्य क्षेत्र काल भाव की प्राप्ति - योग्य क्षेत्र अपने आप में उस प्रकार की विशुद्वि के योग्य यह आत्म पदार्थ हुआ, तो इस ही को एक आधार की प्रमुखता से निरखा जाय तो उसे योग्य क्षेत्र कहते है और बाहर में योग्य स्थान - जैसे समवशरण का स्थान या अन्य कोई धर्म प्रभावक स्थान है। ऐसा योग्य क्षेत्र मिलने पर इसकी दृष्टि इस स्वभाव के निरखने की हो जाती है और वहां स्वभाव की प्राप्ति मानी गयी है। योग्य काल क्या है? अपने आपके शुद्ध परिणमन होने के लिए जो प्रथम पर्याय है, परिणमन है वह निजका योग्य काल है, और बाहर में धर्म समागम वाले काल, चतुर्थकाल तीर्थकरों के वर्तने का काल, ये सब योग्य काल कहलाते है, योग्यकाल की प्राप्ति होने पर इस आत्मा के स्वभाव की उपलब्धि होती है। इस ही प्रकार योग्यभाव अंतरंग में जो स्वभाव भाव है वह तो शाश्वत योग्यभाव है, उस स्वभाव भाव के विकास होने रूप जो कुछ पर्याय योग्यता है, भव्यत्व भाव है, भव्यत्वभाव के विपाक होने के काल में जो योग्य विशुद्ध परिणाम है वह शुद्ध विशुद्ध परिणाम योग्य भाव कहलाता है।