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आर्दश - जो जिसका रूचिया होता है वह उसका संग करता है, वह उसकी धुन बनाता है, उसको उस ही मार्ग का आप्त अर्थात् पहुँचा हुआ पुरूष आदर्श है, खोटे कार्यो में लगने वाले पुरूष को खोटे कार्यो में निपुण लोग आदर्श हैं और आत्महित की अभिलाषा करने वाले मनुष्य के आत्महित में पूर्ण सफल हुए शुद्ध आत्मा आदर्श है। जो जिस तत्व का अभिलाषी होता है वह उस तत्व का ही यत्न करता है। अपने आपके ज्ञानस्वरूप निरखे बिना न तो परमात्मदर्शन में सफलता हो सकती है और न आत्मानुभव में सफलता हो सकती है। ये कषाय भी इस ही शुद्व ज्ञानस्वरूप की दृष्टि के बल से मंद होती है। कषायो का विनाश भी इस ही स्वभाव के अवलम्बन से होता है क्योकि यह स्वभाव स्वंय निष्कषाय है, निर्दोष है। इस स्वभाव की उपासना करने वाले संतजन सदा प्रसन्न रहते है। वे परपदार्थो के किसी भी परिणमन से अपना सुधार और बिगाड़ नही समझते हैं। वे सदा अनाकुल रहते है, परम विश्राम का साधन जो स्वतंत्र अकर्ता अभोक्ता प्रतिभात्मक तत्व है उसकी दष्टि हो, न हो तो अनाकुलता वहाँ कैसे प्रकट हो? जो अपने को अन्य किसी रूप मान लेते हैं वे जिस रूप मानते हैं उसकी और उनकी प्रगति हो जाती है।
स्वभावप्राप्ति के अन्तर्बाहा साधन - द्रव्यकर्मो का अभाव होने पर स्वभाव की प्राप्ति कहना एक निमित नैमित्तिक सम्बन्ध की बात बताना है और रोगद्वेष आदि भावकर्मो का अभाव होने पर स्वभाव के प्रकट होने की बात कहना यह प्रागभाव प्रध्वंसाभावरूप में कथन है अर्थात हमारे विकास का साक्षात् बाधक भावकर्म है, द्रव्यकर्मो तो हमारे बाधको का निमित्त कारण है। स्वभाव की प्राप्ति इन समस्त कर्मो का अभाव होने पर होती है। जब स्वभाव की प्राप्ति हो लेती है तब उनका स्वरूप विशुद्ध सम्यग्ज्ञानमय होता है, ऐसे ज्ञानात्मक परमात्मा को हमारा नमस्कार हो, वे सदा जयवंत रहें और उनके ध्यान के प्रसाद से मुझमें अत: विराजमान परमात्मतत्व जयवंत होओ। अन्तः प्रकाशमान यह परमात्मतत्व व्यक्तरूप से प्रकाशमान हो जावे – यही स्वभाव की परिपूर्ण प्राप्ति है। इस स्वसमयसार को मेरा उपासनात्मक नमस्कार होओ।
योग्योपादानयोगेन दृषदः स्वर्णता मता ।
द्रव्यादिस्वादिसम्पत्तावात्मनोऽप्यात्मता मता।। स्वभावावाप्तिका विधिरूप अन्तरंग कारण – पहिले श्लोक में आत्मा के स्वभाव की प्राप्ति का उपाय निषेध रूप कारण से बताया गया था अर्थात् समस्त कर्मो का अभाव होने पर स्वभाव की स्वयं प्राप्ति हो जाती है, इस तरह निषेध रूप कारण बताकर अमेद स्वभाव की प्राप्ति कही गयी थी, अब इस श्लोक मकें विधिरूप कारण बताते है। जैसे योग्य अपादान के योग से एक पाषाण में जो कि स्वर्ण के योग्य है जिसे स्वर्णपाषाण कहते हे। उसमें स्वर्णपना माना गया है अर्थात् प्रकट होता है, इस ही प्रकार जब द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के योग्य सामग्री विद्यमान हो जाती है तो इस आत्मा में निर्मल चैतन्यस्वरूप आत्मा की उपलब्धि होती है।