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________________ ज्ञान का तात्विक फल – परमार्थतः तो यह आत्मा ही स्वंय शुद्ध ज्ञानस्वरूप है। इस ज्ञान की उपासना से ज्ञान का ही फल मिला करता है। जो ज्ञान अनश्वर है, सदा रहने वाला हे ऐसे ज्ञान की सेवा से फल ज्ञान का ही मिलता है। लेकिन यह मोह का बड़ा विचित्र संताप है कि मोहीजन इस ज्ञान की उपासना से भी कुछ और चीज ढूँढना चाहते है। ज्ञानपुज परमात्मा की पूजा से ज्ञान का ही प्रकाश मिलेगा किन्तु यह मोही प्राणी ज्ञानपुंज भगवान की पूजा मे भी अन्य कुछ बात ढूँढ़ना चाहता है। यह मोह का संताप है। ज्ञान की उपासना से तो उत्कृष्ट अविनाशी सम्यग्ज्ञान की ही प्राप्ति होती है, इसलिए ज्ञान प्राप्ति के लिए ज्ञानी की उपासना करे। ज्ञानी की उपासना करते हुए में भी जिसके मोह की पुट लगी रहती है वह क्या अपना प्रयोजन सिद्ध कर सकेगा? हाँ विवेकी के जो ज्ञानी पुरूषो का गुणांनुराग है वह गुणों का अनुराग है, मोह का अनुराग नही है। वह तो आदर के योग्य है, परन्तु धन वैभव की उपासना तो केवल मोहवश ही की जाती है वह अज्ञानरूप ज्ञानी व अज्ञानी के संग से लाभ हानि का कारण – अज्ञानी की उपासना से संसार का संकट दूर न होगा, इसलिए ज्ञानियों की तो संगति करें और अज्ञानियों की संगति से दूर हो। कोई अज्ञानी पुरूष चमत्कार वाला भी हो, लौकिक इज्जत भी बहुत बढ़ गई हो, फिर भी अज्ञान का आश्रय लेना विपदा के लिए ही है। आज कुछ चाहे भले ही रूच रहा हो, लेकिन अज्ञानी का संग ऐसा खोटा सस्कार बना देगा कि वह अज्ञान मार्ग में लग जायगां। ज्ञानी के संग में यद्यपि ज्ञानी की और से कुछ आर्कषण नही रहता क्योकि ज्ञानी निर्वाञछक हे, अंतस्तत्व का ज्ञाता है, भोगो से उदासीन हे, उसे क्या पड़ी है जो दूसरो को वश में करे या दूसरो का आकर्षण हो ऐसा कोई विधि रागपूर्वक करे। ज्ञानी पुरूष के प्रति जिनका आकर्षण है वे पुरूष स्वयं शुद्व है। जो स्वयं अपवित्र होंगे वे पुरूष ज्ञानियो की संगति में कैसे पहचेगे? जो स्वयं पवित्र होगें सो ही ज्ञानी की संगति में पहुंचेगे। अपवित्र पापी व्यसनी पुरूषो को ज्ञानी का समागम दुर्लभ है। अज्ञानी के धर्मसमागम की अरूचिका भाव – एक बात प्रसिद्ध हे कि भगवान के समवशरण में मिथ्यादृष्टि जीव नही पहुँचते। उसका भाव यही है कि जो गृहीत मिथ्यादृष्टि है, अपने मिथ्यात्व के मद में उद्दण्ड है उनके यह भाव ही नही होता है कि वे प्रभु के समवशरण में पहुचें। और यदि कदाचित् उदण्डता मचाने के ध्येय से समवशरण में जाते है तो वहाँ के द्वारपाल रक्षक देव उन्हे पीटकर निकाल देते है। सर्वप्रथम तो यह बात है कि उनकें यह भाव ही नही होता कि हम र्धमस्थानो में पहुंचे। तपस्वी ऋषि संतो की यह अनुभवपूर्ण वाणी जो ग्रन्थो में निबद्व है उसको सुनने का पापी जीवों का भाव और अनुराग ही नही हो पाता क्योकि वे पाप-वासना में उपयोग दे या धर्म में। जिसके पास जो है वह उसका ही स्वाद लेता है। अज्ञानी जन अज्ञान का ही स्वाद लिया करते है। 95
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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