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________________ है। मृत्यु के दिन निकट आ रहे है प्रथम तो किसी की भी मृत्यु का पता नही है, पर आयु अधिक हो जाय तो उसके बाद और क्या होगा? बचपन के बाद जवानी और जवानी के बाद बुढ़ापा और बुढ़ापा के बाद क्या फिर जवानी आयगी? नही। मरण होगा, फिर नया जन्म होगा। तो यह समय प्रवाह से बह रहा है और हम ममता में कुछ अन्तर न डाले, ढील न करे तो सोच लीजिये क्या गति होगी? धर्म पालन का अन्तरंग आशय से सम्बन्ध – हमारा धर्म पालन ममता के पोषण के लिए ही हो, हम दर्शन करे तो मेरा सब कुछ मौज बना रहे, इसके लिए हो, कुछ भी हम धर्म पालन करे, विधान करे, पूजन करे, यज्ञ करे, समारोह करे, कुटुम्ब परिवार की मौज के लिए करे, कोई रोग न आए, कोई उपद्रव न आये, वही धन नष्ट न हो जाय, टोटा न पड़ जाय, धन बढ़े मुकदमें मे विजय हो, इन सब आशाओ को लेकर जहाँ धर्मपालन ही रहा हो वहाँ क्या वह धर्म है? वह धर्म नही है। जो धर्म के नामपर आत्मा और परमात्मा के निकट भी नही जाते है वे भी तो आज लखपति करोड़पति बने हुए है। यह धन का मिलना वर्तमान में मंदिर जाने, हाथ जोड़ने के अधीन नही है, यह तो पूर्व समय में जो त्यागवृत्ति की, उदारता की, दान किया, पुण्य किया, सेवाएँ की, उनका फल है जो आज पा रहे है। धर्म-पालन परमार्थतः यदि हो जाय तो धर्म से अवश्य ही शान्ति और संतीष मिलेगा। संगतिविवेक - भैया ! अपने आपको जो अज्ञानरूप से मान रहा है, मै क्रोधी हूं, मानी हूं, अमुक पोजीशन का हूँ, अमुक बिरादरी का हूँ, अमुक सम्प्रदाय का हूँ, ऐसी प्रतिष्ठा वाला हूँ, इस प्रकार इन सब रूपों में अपने आपको जो निहारता है वह अज्ञानी है। जो अज्ञानी की सेवा करेगा उसके अज्ञान ही बढ़ेगा और जो ज्ञानस्वरूप आत्मतत्व की सेवा करेगा उसके ज्ञान बढ़ेगा। लोक में यह बात प्रसिद्ध है कि धनी की सेवा कोई करता है तो धन मिल जायगा, विद्वान की कोई सेवा करता है तो विद्या मिल जायगी। इसी प्रकार कोई अज्ञानी गुरूओ की सेवा करता है तो उसे अज्ञान मिलेगा। अफीम, भांग, चर्स फूंकन वाले साधुओ के चरणो में भी बहुत से भंगेड़ी, गंजेड़ी पड़े रहा करते है, और उनकी सेवा यही है कि चिलम भर लावो, फुक लगावो, भगवान का नाम लेकर अब अफीम चढ़ावो। दूसरो को उनसे मिल क्या जाता है? क्या वहाँ किसी तत्व के दर्शन हो पाते है? अज्ञानियो की संगति में अज्ञान ही मिलेगा और ज्ञानी साधु संतो की सेवा में सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होगी। इस कारण जो पुरूष अपना कल्याण चाहते है उनका यह कर्तव्य है कि जो विवेकी है, ज्ञानी है, जो सांसारिक माया से परे है, ज्ञानध्यान तप में लवलीन है, जिन्हे वस्तुस्वरूप का भला बोध है जिनमें परपदार्थो की परिणति से रागद्वेष उत्पन्न नही होते, जो सबको समान दृष्टि से निरखते है ऐसे विवेकी तप से ज्ञानी आत्माओ की उपासना करे, पूजा सत्कार, विनय करे और उनकी उपासना करके ज्ञान का लाभ ले। 9A
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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