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यह पछतावा करता है । सोचता है कि इसे कल ही बेच देते तो ठीक था। अब मै इतने घाटे में हो गया हूं। अरे चीज वही की वही घ्ज्ञर में है, घाटा तो कल्पनाका है।
उदारता का अवसर - कल्पना करो कि जितनी जिसके पास जायदाद है उससे चौथाई ही होती तो क्या वे गुजारा न करते? मिल गयी है अब सुकृत के उदयवश तो उसे यो जानो कि यह उपकार के लिए मिली है। भोग विषय मौज के लिए नही है । उस सम्पत्ति का उपयोग अपने विषयो के खातिर न करे। अपना जीवन तो वैसे ही रखे, जैसे कि अन्य गरीब लोग रखते है और दिल में उदारता बरते तो उसे कभी बेचैनी का प्रसंग न आयगा। पहिले लोग ऐसे ही उदार होते थे। महिलाओ में भी किसी घर में यदि कोई बहू विधवा हो जाय तो उस घर की जेठानी, सास, बड़े लोग सभी सावित्क वृत्ति से रहते थे । वे महिलाएँ सोचती थी कि यदि हम लोग श्रृंगार करेंगी तो बहू के दिल में धक्का लगेगा। इतनी उदारता उनमें प्रकृत्या होती थी । और भी इसी प्रकार की गृह सम्बंधी उदारताएँ होती थी ।
उदारता की एक घटित पद्वति पूर्वजो में सामाजिक उदारताएँ भी अपूर्व ढंग की थी। समाज का कोई काम बनाना हो तो अपना अपयश करके भी उस काम को बनाने की घुन रखते थे। एक किसी नगर का जिक्र है कि पंचायत के प्रमुख ने एक नियम बना दिया कि मंदिर में कोई रेशम की साड़ी पहनकर न आये। तो यह बात चले कैसे? जो रिवाज चला आ रहा था वह मिटे कैसे? उसमें कोई क्रांति वाली घटना जब तक सामने न आये तो असर नही पड़ता, सो उस प्रमुख ने अनी स्त्री से कह दिया कि कल तुम रेशम की साड़ी पहनकर खूब सज-धजकर जाना मंदिर। वह गयी मंदिर, और फिर प्रमुख ने उसे ऐसा ललकारा कि यह कौन डाइन, वेश्या इस मंदिर में रेशम की साड़ी पहनकर आयी ? ऐसे शब्द सुनकर मालिन बोली, हजूर आपके ही घर से है ऐसा न कहिये। तब प्रमुख ने कहा हम कुछ नही जानते, 50 ) रू0 जुर्माना । तब से फिर समाज पर प्रभाव पड़ा। वह रेशम की साडी पहिनकर आने वाली बात बंद हो गयी। तो उदारता की बात पहिले इस प्रकार विचित्र पद्वति की थी ।
पारमार्थिक उदारता अपने को ज्ञानस्वरूप समझना, अकिञ्चन मानना, केवल स्वरूपसत्ता मात्र अपने को निरखना एक भी पैसे का अपने को धनी न समझना, एक अणु भी मेरा नही है ऐसी अपनी बुद्धि बनाना इससे बढ़कर उदारता क्या होगी? सम्यग्ज्ञान में सर्वोत्कृष्ट उदारता भरी हुई है, मगर कहने सुनने मात्र का ही सम्यग्ज्ञान है। सर्व प्रभावों से रहित ज्ञानमात्र मै आत्मा हूँ, अकेला हूं, सबसे न्यारा हूँ, मेरे करने से किसी दूसरे का कुछ होता नही, अत्यन्त स्वतंत्र मै आत्मा हूँ - ऐसा केवल अपने अद्वैत आत्मा का अनुराग हो तो वह पुरूष वास्तव में अमीर है, सुखी है, पवित्र है, विजयी है, और जो बाहरी पदार्थो में आसक्ति लगाए हुए है, कितना ही धन का खर्च है, कितने ही झंझट भी सह रहे है वे दीन
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