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छोड़कर परम विश्राम से अपने आपका सहज प्रतिभास हो तो ऐसे आत्मानुभव मे जो आनन्द प्रकट होता है उस आनन्द में ही यह सामर्थ्य है कि भव भव के बाँधे हुए कर्मजालो को यह दूर कर सकता है । यों आत्मा की उपासना का अभेदरूप उपाय बताया गया है।
अज्ञानोपास्तिरज्ञानं ज्ञानं ज्ञानिसमाश्रयः ।
ददाति यत्तु यस्यास्ति सुप्रसिद्वमिदं वचः । । 23 । ।
ज्ञान और अज्ञान के आश्रय का परिणाम अज्ञानी की उपासना से अज्ञान की प्राप्ति होती है और ज्ञानी की उपासना से ज्ञान की प्राप्ति होती है, क्योकि संसार में यह बात प्रसिद्व है कि जिसके पास जो है वह तो दे सकेगा। अज्ञानी मोही पुरूषो की संगति करके तो आकुलता, विहलता, ममता, मूढ़ता आदि ये सब ऐब प्राप्त होगे और कोई ज्ञानी की संगति करे तो उसमें शुद्ध बुद्धि, शुद्ध आचार विचार और शान्ति प्रकट होगी। परमार्थ से कोई पुरूष किसी दूसरे का आश्रय नही करता है । प्रत्येक प्राणी अपने आपका ही सहारा लिया करता है। जिस प्राणी का चित्त पर की और है तो उसके उपयोग में केवल परपदार्थ विषय है क्योकि पर से सहारा लेने की कल्पना की । परन्तु कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ का सहारा पा ही नही सकता है। प्रत्येक पदार्थ अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल भावरूप है ।
ज्ञान और अज्ञान के आश्रय का विवरण जो पुरूष ज्ञानियों की संगति करता है उसके उपचार से तो ज्ञानियों की संगति की, पर परमार्थ से उसने अपने ज्ञान की संगति की। अपने ज्ञान का ही सहारा लिया, यह बात है। अपने को ज्ञानस्वरूप में देखे तो ज्ञान मिलेगा और अपने को अज्ञानस्वरूप निरखें तो अज्ञान मिलेगा। मैं मनुष्य हूँ, कुटुम्ब वाला हूँ, धनवाला हूँ, इज्जत वाला हूँ साधु हूँ गृहस्थ हूँ आदि रूप से निरखे तो अज्ञान रूप में देखा क्योकि जितनी बातें अभी कही गयी है उनमे एक भी चीज इस आत्मा का स्वरूप नही है । जो आत्मा का स्वरूप नही है उस रूप अपने आपको देखे तो उससे अज्ञान ही प्रकट होगा। यदि अपने को शुद्ध ज्ञान ज्योतिमात्र निरखे, इसका किसी अन्य से सम्बंध नही है, यह मात्र केवल निज ज्ञानस्वरूप है। सबसे न्यारा स्वतंत्र, परिपूर्ण जैसा स्वयं है तैसा अपने को देखें तो उससे ज्ञान प्रकट होगा ।
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कल्पनाजाल का क्लेश भैया ! जितने भी जीव को समागम मिले है वे समस्त समागम मिटेगें, झक मारकर छोड़ने पड़ेगे, लेकिन पदार्थ पहिले से ही छूटे हुए है। मै सबसे न्यारा हूं, ऐसा ज्ञान का पुरूषार्थ करे और ममता का परिहार कर दे तो उसका भला है । और कोई न कर सके ऐसा तो संसार में वही रूलेगा। जीव पर सकंट केवल मोह का है दूसरा कोई संकट नही है लेकिन ऐसा ही संस्कार बना है कि जिसके कारण जितना जो कुछ मिला है और जितना मिलने की आशा है उसमें कोई बाधा पड़ जाय तो बड़ा क्लेश मानता है। किसी व्यापार में यह ध्यान हो गया कि इसमें तो इतने का टोटा हो गया तो
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