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________________ आत्मज्ञान में स्वसंवेदन की विधि - प्रत्येक पदार्थ अपने आपके ही द्रव्य गुण पर्याय से है, किसी अन्य के द्रव्य गुण पर्याय से नही है। अब यहाँ अन्य द्रव्य, अन्य गुण, अन्य पर्याय का विकल्प तोड़कर केवल आत्मद्रव्य, आत्मगुण और आत्मपर्याय का ही उपयोग रखे तो चूंकि वही ज्ञाता, वही ज्ञेय और वही ज्ञान भी बन जाता है तो वहाँ स्वसम्वेदन प्रकट होता है और स्वसम्वेदन में यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि यह मैं आत्मा हूं, ऐसे आत्मपदार्थ के उपयोग में चित्त की एकाग्रता होती है। चित्त की एकाग्रता में प्रगति- चित्त की एकाग्रता होने से इन्द्रिय का दमन होता है। जो लोग बेकार रहतें है, जिन्हे कोई काम काज नही है, न कोई अपूर्व-अपूर्व कार्य करने की धुन है ऐसे निठल्ले पुरूष इन्द्रिय के विषयो का शिकार बने रहते है। करे क्या वे? उपयोग यदि शुद्ध तत्व में नही रहता है तो यह बाहर के विषय में अधिक बढ़ेगा। इन्द्रिय का दमन परमार्थ तत्व की एकाग्रता बिना वास्तविक पद्वति मेंनही हो सकता है। जब इन्द्रिय का दमन न होगा, चित्त की एकाग्रता न होगी तो मन विक्षिप्त रहा, यत्र तत्र डोलने वाला रहा तो मन की इस विक्षिप्तता के होने पर स्वानुभव हो नहीं सकता। अतः आत्मा के अनुभव के लिए श्रुतज्ञान का आश्रय लेना परम आवश्यक है । वस्तु के सही स्वरूप का परिज्ञान करना अत्यन्त आवश्यक है। शुभ उपयोगो का प्रगति में सहयोग – भैया ! पहिले श्रुतज्ञान का आलम्बन करके अर्थात् वस्तुस्वरूप की विद्या सीखकर आत्मा को जाने। पीछे उस आत्मा के जानने की निरन्तरता से आत्मा का अनुभव करे। जो पुरूष आत्मा का द्रव्यरूप से, गुण रूप से, पर्यायरूप से ज्ञान नही करतें है वे आत्मस्वभाव को नही जान समझतें है। इस कारण ये शुभोपयोग हमारे पूर्वापर अथवा एक साथ चलते रहना चाहिए। इन्द्रिय का दमन करे, पंचेन्द्रिय के विषयो से विरक्त रहे और क्रोधादिक कषायो को शान्त करे, श्रुतज्ञान का, तत्व ज्ञान का अभ्यास बनाए रहे, इन सब पुरूषार्थो के प्रताप से एक परम आनन्द की छटा प्रकट होगी। ज्ञानस्वरूप यह मैं आत्मा अपने आपके द्वारा ज्ञान में आऊँगा। आत्मा की इस तरह की अभेद उपासना से अनुभूति होती है। आत्मकल्याण के लिये आत्माश्रय की साधना - आत्मा का परिज्ञान आत्मा के ही द्वारा होता है। ऐसा निर्णय करके हे कल्याणार्थी पुरूषों, आत्मज्ञान के लिए अन्य चिन्ताओ को त्याग दो और आत्मज्ञान में ही सत्य सहज परम आनन्द है ऐसा जानकर उस शुद्व उत्कृष्ट आनन्द की प्राप्ति के लिए परपदार्थों की चिन्ता का त्याग कर दो। ज्ञान और आनन्द आत्मा में सहज स्वंय ही प्रकट होता है। जितना हम ज्ञान और आनन्द के विकास के लिए परपदार्थो का आश्रय लेते है और ऐसी दृष्टि बनाते है कि मुझे अमुक पदार्थ से ही ज्ञान हुआ है, अमुक पदार्थ से ही आनन्द मिला है, इस विकल्प में तो ज्ञान और आनन्द का घात हो रहा है। एक प्रबल साहस बनाएं और किसी क्षण समस्त परपदार्थो का विकल्प 91
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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