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________________ आवश्यकता हुई है। धर्म पालन धन के आधीन नही है । फिर अध्यात्म धर्म पालन में जो वास्तविक धर्मपालन है उसमें तो धन की रंच भी आवश्यकता नही होती है। आत्मज्ञान में परद्रव्य की अटक का अभाव जो लखपित करोड़पति पुरूष है वे आत्मा का ज्ञान जल्दी कर लें और गरीब न कर पाये ऐसी उलझन आत्मा के ज्ञान में नही हे। बल्कि अमीर पुरूष, लखपति करोड़पति पुरूष प्रायः धन की और आकृष्ट होगा, धन की तृष्णा में रत रहेगा, उसे आत्मज्ञान होना कठिन है, और कष्ट में, दरिद्रता मे पड़ा हुआ पुरूष चूँकि अपने चित्त की लम्बी छलांग नही मारता है अतः अपने आपको अपने आपके द्वारा अपने आप में अपने आपके सहज स्वरूप के रूप में ध्यान करते रहना चाहिए । बाह्रापदार्थो का विकल्प टूटे तो स्वरसतः स्वयं ही अपने आत्मा का प्रतिबोध होता है। आत्म परिज्ञानार्थ स्वरूप प्रतिबोध की आवश्यकता - यह आत्मपरिज्ञान बने इसके लिए पदार्थ विषयक स्वरूप का स्पष्ट प्रतिबोध होना चाहिए । प्रत्येक पदार्थ द्रव्य, गुण, पर्यायस्वरूप है। उदाहरण में जैसे यह मै आत्मा आत्मद्रव्यत्व, आत्मशक्ति और आत्म परिणमन से युक्त हूं। - आत्मा में गुण व पर्याय के परिज्ञान कीक पद्वति आत्मपरणिमन का परिज्ञान बहुत सुगम है क्योकि वह स्पष्ट रूप है। रागद्वेषादि हो रहे हो अथवा वीतरागता बन रही हो वह सब आत्मा का परिणमन है । ये समस्त आत्मा के परिणमन अपनी शक्ति के आधार से प्रकट होते है, अर्थात् जितने प्रकार के परिणमन है उतने प्रकार की शक्ति पदार्थ में जानना चाहिए। कोई भी परणिमन उस परिणमन उस परिणमन की शक्ति से ही तो प्रकट हुआ है। जैसे आत्मा में जानना परिणमन होता है तो जानन की शक्ति है तभी जानन परिणमन होता है, और यह जानना परिणमन जानन शक्ति का व्यक्त रूप है। यह विशिष्ट जानना नष्ट हो जायगा फिर और कुछ जानना बनेगा, वह भी नष्ट होगा। अन्य कुछ जानन बनेगा, इस प्रकार जानन परिणमन की संतति चलती जाती है। वह संतति किसमें बनी है? जिसमें बनी है वह है ज्ञान शक्ति, ज्ञानस्वभाव, ज्ञानगुण । तो जैसे जानन की परिणति का आधारभूत ज्ञानगुण है ऐसे ही आनन्द की परिणति का आधारभूत आनन्दगुण है। किसी भी प्रकार के विश्वास का आधारभूत श्रद्वा ज्ञानगुण है, क्रोधादिक कषायो का अथवा शान्त परिणमन का आधारभूत चारित्र गुण है। इस प्रकार जितने भी प्रकार के परिणमन पाये जाते है उतनी ही आत्मा में शक्यिाँ है, उनका ही नाम गुण है। - आत्मपदार्थ क द्रव्यरूपता इन गुण और पर्यायो को आधारभूत द्रव्यपना भी इस आत्मा में मौजूद है, जो गुण पर्यायवान हो वह द्रव्य है, जो द्रव्य की शक्ति है वह गुण है और उन गुणो का जो व्यक्त रूप है वह पर्याय है । यों आत्मपदार्थ द्रव्यत्व, गुण और पर्याय से युक्त है। 90 1
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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