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अतः एकाग्रता करने के लिए कषायों की शान्ति आवश्यक है । कषाय दब जाय, शान्त हो जाय, साथ ही कषाय शग्न के लिए इन्द्रिय का दमनआवश्यक है ये इन्द्रियाँ उद्दण्ड होकर अपने विषयो में प्रवृत्त हो रही है अथवा यह उपयोग इन्द्रिय के विषयो मे आसक्त हो रहा हैं, उनसे यह सुख मानता है और उसमें ही हित समझता है ऐसे इन्द्रिय विषय की प्रवृत्ति में चित्त का अस्थिर होना प्राकृतिक बात है और कषाय बढ़ते रहना भी प्राकृतिक है इसलिए इन्द्रिय के दमन की भी प्रथम आवश्यकता है जो जीव इन्द्रिय का दमन नही कर सकता वह वित्त को एकाग्र नहीं बना सकता। इसलिए इन्द्रिय के विषयों का निरोध भी आवश्यक है जब इन्द्रिय के विषयो का निरोध हो जाय तो आत्मा में समता परिणाम जाग्रत होता है। इस समता परिणाम का ही नाम आत्मबल है । जहाँ यह आत्मबल प्रकट हुआ है वहाँ उपयोग स्थिर है, यो उपयोग को एकाग्र करके स्वसम्वेदन प्रत्यय के द्वारा यह आत्मा अनुभव में आता है।
आत्मा में स्वपरप्रकाशकता का स्वभाव इस आत्मा में स्वपरप्रकाशकता का स्वभाव पड़ा हुआ है। जैसे दीपक स्वपर प्रकाशक है ऐसे ही आत्मा स्वपर का जाननहार है । जैसे कमरे में दीपक जलता हो तो कोई यह नहीं कहता कि दीपक को ढूँढने के लिए मुझे दीपक दो या बैटरी दो, ऐसे ही यह आत्मा परपदार्थो का भी प्रकाशक है और साथ ही अपने आपका भी प्रकाशक है। इस कारण आत्मा के जानने के लिए भी अन्य पदार्थ की, अन्य साधनो की आवश्यकता नहीरहती है तब जो पुरुष आत्मा का ज्ञान चाहतें है उन्हें प्रथम तो यह विश्वास करना चाहिए कि मैं अपने आत्मा का ज्ञान बड़ी सुगमता से कर सकता हूं क्योकि आत्मा ही तो स्वयं ज्ञानमय है और उस ज्ञानमय स्वरूप से ही इस ज्ञानमय आत्मा को जानना है। इस कारण मै आत्मा का सुगमतया ज्ञान कर सकता हूं।
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आत्म परिज्ञान व धर्मपालन में पर की निरपेक्षता भैया ! आत्मा के परिज्ञान के लिए अन्य पदार्थों की चिन्ता नही करनी है मैं कैसे आत्मा का ज्ञान करूँ? मेरे पास इतना धन नही है कि आत्मा के ज्ञान की बात बनाऊँ । आत्मा के ज्ञान में धन की आवश्यकता नही है। जैसे कुछ लोग धर्म धारण के प्रसंग में कहने लगते है कि हमारे धन की स्थिति कुछ अच्छी होती तो हम जरूर धर्म पालते, प्रतिमा पालते, पर धर्म के धारण मं आर्थिक स्थिति की पराधीनता है कहाँ ? धर्म किसे कहते है, वह धर्म तो समस्त परपदार्थो से विविक्त होकर ही प्रकट होता है। जैसे लोग कह देते है कि शुद्ध खान पान के लिए कुछ विशेष पैसे की जरूरत पड़ती है। शुद्ध घी बनाना है, शुद्व आटा तैयार करना है तो कुछ धन ज्यादा लगेगा तब शुद्ध भोजन किया जायगा और धर्म पालन होगा, ऐसा सोचते हे लोग, परन्तु पदार्थो के शुद्ध बनाने में कुछ अधिक व्यय नही होतां । खाना तो उसे था ही, खाता वह अशुद्ध रीति से, पर शुद्ध रीति के भोजन में कुछ धन की सापेक्षता विशेष नही हुई है, भोजनमात्र में जो सापेक्षता है उतने ही व्यय की अपेक्षा शुद्ध भोजन में है, परिश्रम की थोड़ी
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