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आत्मानमात्मवानध्यायेदात्मनैवात्मनात्मनि । |22 ||
आत्मा में अभेद षटकारता- आत्मामे अभेद षट्कारकता – पूर्व श्लोक में आत्मा का अस्तित्व प्रमाणसित बताया है। प्रमाणसिद्ध आत्माके परिज्ञान होने पर अब यह उत्सुकता होती है कि इस आत्माकी उपासना किस प्रकार करना चाहिए? उसके उपासनाकी विधि इस श्लोक में कही जा रही है। कल्याणार्थी आत्मा इन्द्रियके विषयोंको संयत करके रोक करके एकाग्रचित होकर अपने आत्मामें स्थित अपने आत्माको अपने आत्म उपयोग द्वारा ध्यान करे। आत्माके परिज्ञान में आत्मा ही तो कारण है और आत्मा ही आधार है। (1)
कर्ता-जानने वाला भी यह आत्मा स्वयं है (2) कर्म-कर्म जिसको जाना जा रहा है वह आत्मा भी स्वंय है। (3) करण-जिसके द्वारा जाना जा रहा है वह करण भी स्वंय है (4) अधिकरण-जिसमें जाना जा रहा है वह आधर भी स्वंय है। इसके चार कारको का वर्णन आया है। साथ ही दो कारको का भी मंतव्य गर्भित है कि (5) अपादन-जिससे जाना जा रहा है अर्थात् जानन किया, क्षणिक रूप में उपस्थित होकर ज्ञान ने जिस ध्रुव पदार्थ का संकेत किया वह अपादान भूत आत्मा भी स्वयं है (6) सम्प्रदान-जिसके लिए जाना जा रहा है वह प्रयोजन भी स्वयं है।
अभेदषट्कारता पर एक दृष्टान्त - जैसे कोई साँप लम्बा अपने शारको कुडंलिया बनाकर गोलमटोल करके बैठ जाय तो वहाँ कुंडलिया रूप कौन बनता है? सांप, और किसको कुंडली बनाता है? अपने को और किस चीज के द्वारा कुण्डली बनाता है? अपने आपके द्वारा, और कुण्डली बनाने का प्रयोजन क्या है, किसके लिए कुण्डलीरूप बनाता है? अपने आपके आराम के लिए, अपने आपकी वृत्ति के लिए कुण्डली बनाता है, और यह कुण्डली बनाने रूप परिणमन जो कि क्षणिक है अर्थात् अभी बनाया है, कुछ समय बाद मिटा भी देगा सो कुण्डलियाँ रूप परिणमन किस पदार्थ से बनाता है? उस परिणति में ध्रुव पदाथ्र क्या है? तो दृष्टान्त में वह सर्प स्वंय ही है और यह कुण्डली बनी किसमें है? उस सांप में ही है। जैसे वहाँ अभेदकारक स्पष्ट समझ में आता है इससे भी अधिक स्पष्ट ज्ञानियों की दृष्टि में आत्मा के अभेदकारकत्वपना अनुभव में आता है। यह आता स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष अनुभव करने के योग्य है।
स्वसंवेदनप्रत्यद्वक्ष के उद्योग के उपाय - वह स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष कैसे बने, उसका उपाय है इस सहज आत्मस्वरूप की एकाग्रता करना। इस आत्मातत्व पर एकाग्ररूप से बना हुआ उपयोग आत्मा का स्वसम्वेदना करा देता है। चित्त की एकाग्रता के उपाय है कषायो की शान्ति करना। जब तक कषाये शान्त नही होती है चित्त एकाग्र नही होता है। कषायो के शांत किए बिना लौकिक पदार्थो के उपयोग में भी एकाग्रता नही रहती, फिर शान्त स्वभावी निज आत्मतत्व के उपयोग में स्थिरता तो कषायो के शांत किए बिना असम्भव है,
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