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प्रभावित नही होता, किन्तु असंख्यात समय तक वह राग राग चलता रहे तब हम उपयोमें, ग्रहणमें आता है और हम प्रभावित होते है, फिर भी उपयोग के विषयभूत उस रागपर्याय समूह में प्रतिक्षण जो राग परिणमन है वह प्रतिसमयका एका एक परिणमन है, किन्तु वह एक समय के परिणमन प्रभु के ज्ञान द्वारा जाने जा सकते है, क्योकि उनका केवलज्ञानल निरपेक्ष असहाय होता हुआ प्रति समय की परिणतिको जाननेवाला है, पर छद्मस्थ जीव एक समय के रागपरिणमनको ग्रहण नही कर सकते। यो उपयोग द्वारा जान भी नही सकते। यद्यपि इस ही उपयोग से हम रागके एक समयकी चर्चा कर रहे है। समयवर्ती राग होता है, हम चर्चा कर रहे है, पर विशद परिचय नही हो सकता। हम छद्मस्थ जान लेते है युक्तियो से, आगमसे, पर जिसे अनुभवमें आना कहो, परिचयमें आना कहो वैसा एक समयका राग परिचयमें आ ही नही सकता, किन्तु होता है अवश्य प्रतिसमयमें परिणमन और एक समयका परिणमन दूसरे समय रहता नही है।
परिणमनके आधारकी ध्रुवता - प्रतिक्षण परिणामी क्षणिक है यह आत्मा और समस्त पदार्थ परन्तु परिणमन दृष्टि से यह क्षणिकता है। अत्यय नही हो गया उसका, पर्यायोका आना नही खत्म हुआ है, पर्यायें चलती ही रहेंगी। एक पर्याय मिटनेके बाद उसमें दूसरी पर्याय आती है, तो जिसमे पर्याय आयी वह पदार्थ शाश्वत है। यह आना जाना किस पर हुआ? वह पदार्थ ही कुछ न हो, मात्र परिणमन ही हो सब, तो सिद्वि नही हो सकती। क्षणिकवादी लोग परिणमनको ही सर्वस्व पदार्थ समझतें है परन्तु परिणमनका आधार अवश्य हुआ करता है और वह अविनाशी है। इस प्रकार यह आत्मा किन्ही बाहा चीजों से उत्पन्न नही हुआ है किन्तु यह अविनाशी ध्रुव पदार्थ है।
आत्मा आनन्दमयता व ज्ञानस्वरूपता - चौथे विशेषणमें कहा है कि आत्मा सुखमय है। कोई मंतव्य ऐसे हैर कि आत्मामे सुख नामका गुण ही नही मानते किन्तु कलंक मानते हे, इसी प्रकार ज्ञान नामका गुण ही नही मानते किन्तु कंलक मानते है। इस सुख का और इस ज्ञानका जब विनाश होगा तभी मोक्ष मिल सकेगा, ऐसा मंतव्य है। वर्तमान परिचयकी दृष्टिसे उन्होने इसकी शुद्धता मानी है, क्योकि लौकिक सुख और लौकिक ज्ञान इन दोनोसे ज्ञानी पुरूष परेशानी मानता है। ज्ञानी तो शुद्ध ज्ञान और शुद्ध आनन्द को ही उपादेय मान्ता है। आत्माका ज्ञान और सुख दोनो ही स्वरूप है, इसी कारण यह आत्मा अनन्त सुखवान है और लोक अलक समस्त पदार्थोका जाननहार है। इस प्रकार यह आत्मा जिसके ध्यानसे सहज आनन्द प्रकट होता है वह आत्मा स्वसम्वेदनगम्य है, शरीर मात्र है अर्थात् शरीर प्रमाण है, अविनाशी है, सुखस्वरूप है और समस्त लोकालोकका जाननहार है, ऐसे परमात्मतत्वमें जो आदर करता है वह विवेकी पुरूष है।
संयम्य करणग्राममेकाग्रत्वेन चेतसः ।
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