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ज्ञान में तृप्ति - ज्ञानी जन ज्ञानामृत के पान से तृप्त रहा करते है क्योकि ज्ञानी पुरूषो को सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति करने का राग लगा है। यह अभिलाषा उनकी जग रही है। मै ज्ञानार्जन करूँ और शुद्व ज्ञान में रत रहूँ। ऐसी इच्छा होती है और साथ ही यह जानते है कि इसकी पूर्ति करके इस इच्छा का भी विनाश करूँ। इस इच्छा को वे उपादेय नही मानते है, पर चरित्र मोह का उदय है ऐसी इच्छा हुआ ही करती है। लेकिन यह इच्छा अच्छे भाव को पोषने वाली है।
कर्तव्यस्मरण - ज्ञानी अपने आत्महितकी साधनामें जागरूक रहता है। जो आत्महित चाहने वाले पुरूष है उनका कर्तव्य है कि ये ज्ञानी, विवेकी, अन्तरात्मा, सम्यग्दृष्टि, संसार शरीर और भोगोसे विरक्त संतोकी उपासना करें, खूब दृष्टि पसारकर निहार लो। जो पुरूष ठलुवोंकी गोष्ठी रहा करते है वे कौनसा लाभ लूट लेते है? रात दिनकी चर्या उनकी जो हो रही है उसपर ही ध्यान देकर देख लो। ये जीवनके क्षण निकल जायेगे। जो निकल गये वे फिर वापिस तो आते नही। निकल गए सो निकल गय। पीछे पछतावा होता है कि मेरी जिन्दगी यो ही निकल गयी। यदि मे ज्ञानार्जन धर्मपालनमें अपना समय लगाता तो मेरा जीवन सफल था। ऐसे पछतावाका मौका ही क्यो दिया जाय? क्यो न अपना पुरूषार्थ अभी भी से धर्मपालन और ज्ञानार्जन में रखा जाए? जो शुद्ध तत्व है उसकी उपासनासे आत्मा को लाभ होता है। जो अशुद्ध अपवित्र आत्मा है, अशुद्ध भाव है, परभाव है उनकी उपासना से आत्माका विनाश होता है, बरबादी होती है।
परमार्थ पुरूषार्थ - भैया सब दृश्य रहना तो कुछ है ही नही। यदि भली प्रकार से पहिलेसे ही अक्ल त्यागकर सर्वसे विविक्त कमलकी भाँति अपने आत्माको निरखें तो इसमें गुणोका विकास होगा और कर्मबन्धन शिथिल हो जायेगे। इसके लिए ज्ञानबल और साहकी आवश्यकता है। यह अपनी ही चर्चा है, अपनी ही बात है, अपने में ही करना है, अपने को ही लाभ है। मानो आज मनुष्य न हुए होते, जिसे हम कीड़ा मकौड़ा निरख रहे है ऐसी ही वृत्ति होती, क्या हुई न थी कभी। आज कीड़ा मकौड़ा ही होते तो कहाँ यह ठाठ, कहाँ ये दो चार मंजिले मकान, कहाँ ये धन वैभव पास में होते जिनमे मोह करके आज बेचैनी मानी जा रही है? इस वैभव से यह आत्मा अब भी अधूरा है, केवल अपने ज्ञान और कल्पनामं बसा हुआ है। है आत्मन् सुन ! तू ऐसे सर्व विशुद्व अपने आत्माके स्वरूपका आश्रय ले तो वहाँ संकट नहीरह सकता है। यो अपने ज्ञानका आश्रय ले। जो अपना स्वभाव है, स्वरूप है ऐसे ज्ञानानंद स्वरूपकी उपासना करे। मै सबसे विविक्त ज्ञानमात्र हूँ, ऐसा विश्वास बनाये तो संसारके समस्त संकट समाप्त हो सकते है।
परीषहाद्यविज्ञानानादास्त्रवस्य निरोधिनी। जायतेऽध्यात्मयोगेन कर्मणामाशु निर्जरा।।
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