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________________ अध्यात्मयोग में उपसर्गादिकका अवेदन जब योगी पुरुष अध्यात्मयोगमें लीन हो जात है तो उसपर मनुष्य तिर्यञच आदिक किन्ही जीवोके द्वारा कोई उपसर्ग आये तो उस उपसर्गका भी पता नही रहता है। अध्यात्मयोगमे लीन होने पर ज्ञानियोको न तो कष्टका पता रहता है, न व्याधियोंका, न किन्ही उपसर्गोका पता रहता है । वहाँ तो स्वरूपमें निम्न अध्यात्मयोगी के समस्त कर्मोका आस्रव निरोध करनेवाली निर्जरा शीघ्र हो जाती है । - क्लेशानुभवका कारण किसीको क्लेश तब तक अनुभव में आता है जब तक उसका चित्त क्लेशरहित निष्कषाय आत्मस्वरूपमें लीन नही होता है। जिसका चित्त बाहा स्त्री पुरूषां व्यामोहमें है उसे अनेक कष्ट लगेंगे। यह मोही जीव जिनके कारण क्लेश भोगता जाता उनमें ही अपना मोह बनाये रहता है। जिसने आत्माके स्वरूप से चिगकर बाह्रा पदार्थो में अपने चित्त को फंसाया कि उसे अनेक कष्टोका अनुभव होगा ही । - धर्मसाधन का उद्यम - धर्मकी यह साधना बहुत बड़ी साधना है। सामायिक करते समय या अन्य किसी समय अपने उपयोगको ऐसा शान्त विश्रांत बनाये कि तत्वज्ञानके बल से समस्त बाह्रा पदार्थो आत्मा से भिन्न जानकर और निज ज्ञानानन्दस्वरूप को निरखकर समस्त बाह्रा पदार्थो को उपयोग में न आने दे ऐसी हिम्मत तो अवश्य बनायें कभी । अनेक काम रोज किए जा रहे है। यदि 5 मिनट को अपना चित्त अपनी अपूर्व दुनियामें ले जावें तो कौनसा घाटा पड़ता है? न आपका यह घर गिरा जाता है, न किसी का वियोग हुआ जाता है। सबका सब वहींका वहीं पड़ा है। दो चार मिनटको यदि निर्मोहताका यत्न किया जाय तो कुछ हानि होती है क्या? किसी भी क्षण अपने आपमे बसे हुए परमात्मस्वरूपका अनुभव हो जाए और सत्य आनन्द प्राप्त हो जाय तो यह जीव अनन्तकाल तकके लिए संकटोसे छुटकारा पाने का उपाय कर लेगा। मोही की आसक्ति भैया! कितने ही भवों में परिवार मिला, पर उस परिवार से कुछ पूरा पड़ा है क्या? कितने भव पाये जिनमे लखपति, करोडपति, राजा महाराजा नही हुए, पर उन वैभवोसे भी कुछ पूरा पड़ा है क्या ? किन्तु आसक्ति इतनी लगाए है कि जिससे इस दुर्लभ नरजीवनका भी कुछ सदुपयोग नही किया जा सकता। भूख प्यासकी वेदनासे अथवा किसीके द्वारा कभी उपसर्ग, परीषह, कष्ट आये तो उससे यह मोही प्राणी अधीर हो बैठता है। कभी कभी तो उन वेदनाओकी स्मृति भी इसे बेचैने कर डालती है। ये सब संकट तब तक है जब तक अपने स्वरूपके भीतर बाहरमें जो उपयोग लगाया है इस उपयोग को निराकुल निर्द्वन्द ज्ञानानन्दस्वरूपमें न लग सके। अपनेको अकेले असहाय स्वतंत्र मानकर शुद्ध परिणमन बनाओ तो सारे संकट समाप्त होते है । ज्ञानविशुद्विमें संकटका अभाव संकट है कहाँ ? किस जगह लगा है संकट ? किसी को मान लिया कि यह मेरा है और अन्य जीवोके प्रति यह बुद्धि करली है कि ये कोई मरे 97
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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