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________________ जीव की अनन्तानन्त गणना जीव कैसे अनन्तानन्त है, यह बात अनुभव से भी जान रहे है। आपका अनुभवन, परिणमन केवल आपके आत्मा मे हो रहा है, उसका अनुभव मुझ में नही होता। मेरे आत्मा का जो परिणमन जो अनुभवन हो रहा है वह मुझमें हो रहा है, आप सब किसी में भी नही हो रहा है। यह वस्तुस्वरूप की बात कही जा रही है। ध्यानपूर्वक सुनने से सब सरल हो जाता है। अपनी बात अपनी समझ में न आए, यह कैसे हो सकता है? जब इतना क्षयोपशम पाया है कि हजारो लाखो का हिसाब किताब और अनेक जगहों के प्रबन्ध जब कर लिए जा सकते है इस के द्वारा तो यह ज्ञान अपने आप में बसे हुए स्वरूप को भी न जान सके, यह कैसे हो सकता है, किन्तु व्यामोह को शिथिल करके जगत की असारता सामान्य रूप से निगाह में रखकर कुछ अंतःउपयोग लगायें तो बात समझ में आ जाती है। हाँ जीव अनन्तानन्त कैसे है- इस बात को कहा जा रहा है। हमारा परिणमन, हमारा अनुभवन हम ही में है, आपका आप ही में है। इससे यह सिद्ध है कि हम आप सब एक एक स्वतंत्र जीव है । यदि इस जगत में सर्वत्र एक ही जीव होता तो हमारा विचार हमारा अनुभवन सबमें एक साथ एक समान अथवा वही का वही होता। यों ऐसे ऐसे एक एक करिके समस्त जीव अनन्तानन्त विदित कर लेना चाहिये । - एक द्रव्य का परिणमन एक पदार्थ उतना होता है जिसमें प्रत्येक परिणमन उस पूरे में होना ही पड़े। कोई परिणमन यदि पूरे में नही हो रहा है तो समझो कि वह एक चीज नही है। अनन्तानन्त वस्तु है, जैसे कोई कपड़ा एक और से जल रहा है तो वह एक चीज नही जल रही है। उसमें जितने भी तंतु है वे सब एक एक है और उन तंतुओ में जितने खंड हो सकते है वे एक एक द्रव्य है । यह अनेक द्रव्यो का पिडं है इस कारण एक परिणमन उस पूरे में एक साथ नही हो रहा हे। जिसको कल्पना में एक माना है, इस तरह हम आप सब अनन्त जीव है । जीव से अनन्तगुणे पुद्गल है। ये कैसे जीवों से अनन्तगुणे पुद्गलों का निरूपण माना जाय ? यों देखिए - इन संसारी जीवो में एक जीवो में एक जीव को ले लीजिए एक जीव के साथ जो शरीर लगा है उस शरीर में अनन्त परमाणु है और उस शरीर के भी अनन्तगुणे परमाणु इस जीव के साथ लगे हुए तैजस शरीर में है और उससे भी अनन्तगुणे परमाणु जीव के साथ के साथ लगे हुए कार्माण शरीर में है। एक जीव के साथ अनन्त पुद्गल लगे हुए है और जीव है अनन्तांनत तो पुद्गल समझ जाइये कितने है । यद्यपि सिद्ध भगवान स्वतंत्र एक एक है और वे भी अनन्त है, किन्तु सिद्व से अनन्तानन्त गुणे ये संसारी प्राणी है, इसलिए उससे भी हिसाब में बाधा नही आती है। अब आपके ये अणु-अणु एक-एक है, हम आप सभी जीव एक एक अलग अलग है । तो यह निर्णय कर लो कि मेरा करना जो कुछ हो सकता है वह मुझमें ही हो सकता है, मै किसी दूसरे में कुछ करने में समर्थ नही हूं। केवल कल्पना करके मैं अपने को विकल्पग्रस्त बनाये रहता हूं 1 204 - -
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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