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________________ के हित का उपाय बना लेना सर्वोत्तम व्यवसाय वे पुरूषार्थ है, उससे आँखे नही मींचना है। परसे आनन्दप्राप्ति असंभव - ये सब समागम तो एक पुण्य पाप के ठाठ है, भिन्न है, सदा रहने के नही है, इनके समागम के समय भी हित नही है और वियोग के समय क्लेश के निमित्तभूत हो सकते है। इन जड़ के पदार्थों में स्वंय सुख नही है वहाँ से सुख निकलकर मुझमें कहाँ आयगा? जो चेतन भी पदार्थ है, परिजन, मित्रजन उनमें सुख गुण तो है, किन्तु वह सुख गुण उनमें ही परिणमन करने के लिए है या उनका कुछ अंश मुझमें भी आ सकता है? उनमे ही परिणमन करने के लिए उनका सुख गुण है। जब इतना अत्यन्त भेद है फिर उनमें आत्मीयता की कल्पना क्यों की जाय? जो उन्हे अपना मानेगे उनके वियोग में अवश्य दुःखी होगा। गृहस्थ जनों का यह सामान्य कर्तव्य है कि यह निर्णय बनाए रहे, संयोग के काल में भी जो जो कुछ यहाँ मिला है नियम से अलग होगा, ऐसी श्रद्वा होगी तो संयोग के काल में यह जीव हर्षमग्न न होगा। संयोग के काल में हर्षमग्न न हो वह वियोग के काल में भी दुख न मानेगा। आत्मलाभ का उपाय - भैया ! किसी भी पर से आत्मा को सुख नही, केवल जो आत्मा पदार्थ है, ज्ञायकस्वरूप है वह ही अपना सर्वस्व है। उसे अपनाने से, उसमें ही यह मात्र मैं हूं, ऐसी प्रतीति करने से सुख मिलेगा। बड़े-बड़े महापुरूष तीर्थकरो ने भी यही मार्ग अपनाया था, जिसके फल में आज उनमें अनन्त प्रभुता प्रकट हुई है। हम आप उनके उपासक होकर उस स्वरूप की दृष्टि न करें तो कैसे हित हो? अपना जीवन सफल करना चाहते है तो यही बड़ा तप करने योग्य है कि उस अपने ज्ञायकस्वरूप को आत्मा मानकर, अपना मानकर उसमें ही उपयोग लीन बनाए रहे, इसे चैतन्यप्रतपन कहते है। यही प्रतपन है और इस प्रतपन का प्रताप अनन्त आनन्द को देने वाला है। अपना यही एक निर्णय रखिए कि ये देहादिक समस्त परपदार्थ है, इनकी प्रीति में हित नही है, किन्तु ज्ञायकप्रकाशमात्र अपने आत्मा को 'यह मै हूं' ऐसा अनुभव करें तो इसमें ही हित है। अविद्वान पुद्गलद्रव्यं योऽभिनन्दनि तस्य तत। न जातु जन्तोःसामीप्यं चतुर्गतिषु मुञचति।।46|| मोही की मान्यता - जो अविद्वान व्यवहारी पुरूष पुद्गल द्रव्य को, यह मेरा है, यह इनका है- इस प्रकार से अभिनन्दन करते है अर्थात् मानते है उन जंतुओ का इस बहिर्मुखता में भ्रमण नही छूटता और चारों गतियों मे पुद्गल द्रव्य उसके निकट रहते है। लोक में 6 जाति के पदार्थ होते है-जीव, पुद्गल, धर्म अधर्म, आकाश और काल। इनमें जीव तो अनन्तानत है, पुद्गल जीवों से भी अनन्तगुणे है। धर्मद्रव्य एक है, अधर्मद्रव्य एक है, आकाश द्रव्य एक है और कालद्रव्य असंख्यात है, ये सभी स्वंतत्र है, किन्तु मोही जीव स्वतंत्र नही समझ पाता। 203
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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