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माना है कोई हिसाब से नही माना है। जो आया सामने उसे ही अपना माना है। मोह की आदत इसमें पड़ी हे ना, सो जो भी जीव सामने संग में प्रसंग में आ गया उसे ही अपना मान लेते है, ऐसी अटपट बात है यह । जैसे अनन्त जीव भिन्न है, इस ही प्रकार ये जीव भी भिनन है ऐसा यहाँ निर्णय अपने अन्तःकरण में लीजिये । कुछ कहने सुनने से आनन्द नही आता है। भीतर में ज्ञान का और उस प्रकार के श्रद्वानका आनन्द आया करता है।
स्निहाके वियोग में क्लेश की अनिवायेता - भैया ! सभी को सुख प्रिय है, अशान्ति दूर हो, शान्ति उत्पन्न हो, इसके लिए ही सबका प्रयत्न है। वह शान्ति परमार्थ से वास्तव में जिस भीउपाय में मिलती हो उसको मना तो नही करना चाहिए। खूब परख लो, किसी भी विषय साधन के संचय में, किसी भी परपदार्थ के उपयोग में, आसक्ति में, कभी क्या शान्ति मिल सकती है? इस उपयोग ने जिन पदार्थो को विषय किया है वे तो नियमतः विनाशीक है, वे मिटेगे, तो यह उपयोग फिर इसकी कल्पना में निराश्रित होगा ना, तब क्लेश ही तो होगा। इस उपयोग से जिस पर पदार्थ का विषय आता है वह पर स्वंय की अपनी परिणति से परिणमता है, परपदार्थ का परिणमन उसके ही कषाय के अनुरूप होगो। परपदार्थ का उपयोग और प्रेम केवल क्लेश का ही कारण होता है । चलते जाते, फिरते, सफर करते हुए में भी कही एक आघ दिन टिक जाय, कुछ वार्तालाप के प्रसंग में कुछस्नेह भाव बढ़ जाय तो उनेक वियोग के समय भी कुछ विषाद की रेखा खिचं जाती है। यद्यपि जिससे वार्तालाप होता है वह अन्य देश, अन्य नगर, अन्य जाति का है, सर्व प्रकार से अन्य अन्य है, कुछ प्रयोजन नही है, केवल कभी जीवन में मिल गया है। दो एक घटे को रेल मे सफर करते हुए, उससे कुछ वार्तालाप होने को स्नेह जग गया, अब वह अपने निर्दिष्ट स्टेशन पर उतरेगा ही, तो वहाँ पर उस स्नेह करने वाले के एक विषाद की रेखा खिंच जायगी। ऐसा ही यह जगत के जीवो का प्रसंग हे। इस अनन्तकाल में कुछ समय के लिए यहाँ कुछ लोग मिल गए है। जिन पुत्र, मित्र, स्त्री, आदि से स्नेह बढ़ गया है उनका जब विछोह होगा तो इसे क्लेश्ज्ञ होगा। बिछुड़ना तो पड़ेगा ही।
भेद विज्ञान के निर्णय की प्रथम आवश्यकता - एक ही निर्णय है कि अपने आत्मस्वरूप को छोड़कर अन्य किसी भी परपदार्थ में स्नेह किया, ममता की चाहे कुटुम्ब परिजन के लोग हो, चाहे जड़ सम्पदा हो, किसी भी परपदार्थ में ममता जगी तो उसका फल नियम से क्लेश है। हम जिस प्रभु की आराधना करते है वह पुरूष तो केवल है ना। उनके भी घर गृहस्थी परिग्रह का प्रसंग है क्या? वे तो केवल ज्ञानपुंज रह गये है, हम ऐसे ज्ञानपुंज की तो उपासना करें और चित्त में यह माने कि सुख और बड़प्पन तो घर गृहस्थी सम्पदा के कारण होता है। तो हमने क्या माना, क्या पूजन किया, क्या भक्ति की ? चित्त में एक निर्णय रख लीजिए और इस बात के निर्णय में यदि बुद्वि नही आती है तो इसका निर्णय प्रथम कीजिए। भेद - विज्ञान जगे बिना धर्मपालन की पात्रता न आ सकेगी। स्वंय
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