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ज्ञानी देहव्यथाका अभाव - ज्ञानी पुरूषको शारीरिक पीड़ाकी भी शंका नही रहती है। मैं आत्मा आकाशवत अमूर्त निर्लेप ज्ञानानन्द प्रकाशमात्र हं, इस मुझ आत्मामें व्याधि कहाँ है? यहाँ कोई ऐसा सोच सकता है कि जब तबियत अच्छी होगी तब यह बात कही जाती। जरा सिरदर्द हो जाय या कुछ बात आ जाय फिर यह बात भूल जाती है, भूल जावो, फिर भी जिसे तत्वज्ञान है, वह व्याधियोके समयमें भी आकुलित नही होता है, सब आपदाओको धीरतासे सहन करता है, और जिनके तत्वज्ञानकी परिपूर्णता है उनको यह भी विदित नही हो पाता कि इस शरीरपर कोई बैठा भी है। यह शरीर मुझसे पृथक् है। यह मैं आत्मा जब शरीरकी और दृष्टि देता हूं तो इस शरीर की व्यथाएँ मुझे विदित होती है अन्यथा नही। मेरे कोई व्यथा नही है। मैं आनन्दमग्न हूं।
आत्मामें देह दशाओका अभाव – मै बालक नही हूं, वृद्व नही हूँ और जवान भी नही हूं। किसका नाम बालक है? शरीरकी ही प्रारम्भिक अवस्थाको बालक कहते है। यह बालपन पुद्गलमें ही हुआ। आत्मा तो ज्ञानानन्दस्वरूपमात्र है। शरीरकी जो मध्यम परिस्थिति है उसे जवानी कहते है, यह जवानी शरीर में होती है शरीर का धर्म है। आत्माका तो गुण है नही। शरीर की ही परिपक्वदशा व उत्तरदशा बुढ़ापा कहलाता है। यह बुढ़ापा भी मुझे आत्ममामें नहीहै। यह मैं आत्मा तो केवल ज्ञानानन्दस्वरूपमात्र हूं। इस प्रकार यह ज्ञानी पुरूष मिले हुए सव समागमो को अपने से पृथक निहारता है। जब आत्माको यह निश्चय हो जाता है कि तू चेतन हे, ज्ञान दर्शनआदिक गुणोका अखण्डपिण्ड है तो इस ज्ञान आदिक गुणोका कभी विनाश नही होता, ऐसी दृष्टि बनती है यही तो मेरी आत्मनिधि है। जो मेरे स्वरूपमें है वह कभी मिट न सकेगा, जो मुझमें है वह मुझसे कभी अलग होता नही जो मुझमं नही है वह कभी मुझमें आता नही हे।
परपदार्थका आत्मामें अत्यन्ताभाव - दृश्यमान समस्त परिणतियाँ दृश्यमान समस्त पदार्थ तेरे कुछ नही है, न तू उनका कभी हुआ है और न कभी हो सकता है परसे तू त्रिकाल भिन्न है। है उदय पुण्यका, ठीक है, किन्तु क्या वैभव में तू एकमेंक बन सकता है? तू तू ही हे, अन्य अन्य ही है। कर्मोदयवश कुछ दिनो का यह साधन संयोग बन गया है। जैसे सफर करते हुए किसी सराय में एक जगह ठहर जाते है। अन्य अन्य देशो से आये हुए कुछ पुरूष, पर वे कुछ समय के लिए ही ठहरे है, एक दूसरे का जो संयोग बन गया है वहाँ वह कुछ समय के लिए ही बना है। कुछ समय ही बाद अथवा प्रातःकाल होते ही सब अपने-अपने अभिमत देशोको चले जाते है। रास्ता चलते हुए सराय में मनुष्य रात भर ही टिकते है, दिनको नही रहते है, प्रातः काल हुआ कि रास्ता नापने लगते है। ऐसे ही यहाँ कुछ समय का मेल है, मोही जीव इस कुछ समय के मेंलमें ही ऐसी कुटेव ठान लेते है कि यही तो मेरे सब कुछ हैं। मेरा मरना जीना इन्हीके लिए तो है ऐसा मोह भाव बसाकर अपने आपको दुर्गतिका पात्र बना लेते है।
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