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मरण नाम है आगे जन्म होनेका। नवीन जन्म लेनेका नाम मरण है। जिसका नवीन जन्म नही होता ऐसे अरहंत भगवानका मरण भी नही कहा जाता है। उसका नाम है निर्वाण । जिसके बाद जन्म हो उसका नाम मरण है। इस आत्माका न कभी जन्म है न कभी मरण है। अपने सहजस्वरूपको दृष्टिमें लेकर चिन्तन करिये। यह शरीर जिसमें बँधा हुआ है। यह शरीर मेंरा साथी नही है, मेरा कुछ भी आत्मतत्व नही है। शरीरकी बात शरीरमें है, मेरी बात मुझमें है। यह मै आत्मा शुद्ध चिदान्द स्वरूप प्रभुकी तरह प्रभुतासे भरा हुआ हूं। स्वरसतः अनन्त चतुष्टयात्मक आत्मसमृद्विसम्पन्न मैं आत्मा हूं। इसमें कहाँ भय है?
मोहियोका विकट भय - सबसे विकट भय जीवको मरण का रहा करता है। कोई पुरानी बुढ़िया जो रोज-रोज भगवान का नाम इसलिए जपे कि भगवान मुझे उठा ले अर्थात् मेरी मौत हो जाय, होगा कोई दुःख। और कदाचित् सांप सामने आ जाय तो वह अपने छोटे पोतोको पुकारती है कि बेटा बचावो सांप आया है, और बेटा अगर कह दे कि तुम तो रोज भगवानका नाम जपती थी भगवान मुझे उठा ले, सो भगवानने ही भेजा है यह, अब काहेको बुलाती है हमें? लेकिन मरणका भय सबको लगता है।
आत्मज्ञानमें भयका अभाव - जो तत्वज्ञानी पुरूष है, जो जानते है कि यह शरीर नही रहा, यह धन वैभव सम्पदा नही रही, लोगोमें मेरी उठा बैठी न रही तो क्या है, ये तो सब मायास्वरूप है। मै आत्मा सत् हूं, मेरा सुख दुःख आनंद सब मेरी करतूतके आधीन है, यहाँके मकान सम्पदा मेरे आधीन नही है। यों आत्मतत्वका चिन्तन हो तो उसे भय नही रहता। भयकी चीज तो यही समागम है। जिसके पास वैभव है उसको भय है, जिसके समीप कोई वैभव ही नही है भले ही वही अन्य जातिका दु:ख माने, पर उसे कुछ भय तो नही है। न चोरका, न डाकूका, न किसीका छलका, कोई प्रकारका उसे डर नही है। बाहा चीजोसे निर्भयता नही आती है किन्तु आत्मज्ञानके बलसे निर्भयता प्रकट होती है। क्या है, न रहा यह तो क्या बिगड़ गया? इससे भी बहुत अच्छी जगह है दुनिया में। यहाँ न रहा
और जगह पहंच गया, क्या उसका बिगाड है? यों जो अपने शद्वसत्व का चिन्तन करता है उस तत्वज्ञानी पुरूषको भय नही होता।
वस्तुके प्राणभूत स्वरूपका विनाश – मेरा प्राण मेरा ज्ञान दर्शन है, मेरा चैतन्यस्वरूप है। प्राण उसे कहते है कि जिसके वियोग होनेपर वस्तु खत्म हो जाय। जैसे अग्निका प्राण गर्मी है। गर्मी निकल जाय तो अग्नि खत्म हो जाती है, उसका सत्व ही नही रहता है। ऐसा मेरा कौनसा प्राण है जिसके निकलनेपर उसका सत्व नही रहता है? यद्यपि ऐसा होता नही। जिस पदार्थका जो सत् है वह तीन काल भी नही छूटता है। अग्नि तो कोई पदार्थ है नही, वह तो पुदगल पर्याय है। अग्नि तो परिणति है। परिणतिका वस्तुतः क्या प्राण बताये? पदार्थका प्राण बताया जाता है, मेरा कभी भी मिट नही सकता, इस कारण यह मैं आत्मा अमर हूँ। क्या मेरे भय है?
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