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________________ कायके विकल्पसे कठिन वचनका किकल्प और वचनके विकल्प से कठिन मनका विकल्प है। कुछ-कुछ ध्यान में तो बनाया जा सकता है। शरीर मै नही हूं। कोई जाननहार पदार्थ मै हूँ, वचन भी मै नही हूं, कोई ज्ञान प्रकाश मै हूँ, पर चित मन जो अंतरंग इन्द्रिय है, जिसका परिणमन ज्ञानविकल्पमें एकमेक चल रहा है उस मनसे न्यारा ज्ञानप्रकाश मात्र मैं हूँ, ऐसा अनुभव करना कठिन हो रहा है। लेकिन यह मनोविकल्प जिसके कारण सहज आत्मतत्वका अनुभव नही हो पाता है यह भी भ्रम है, मनोविकल्पका अपनाना यह भी कष्ट है जो जीव कायसे, वचनसे और मनसे न्यारा अपने आपको देखता है, वह संसारके बंधन से छूटकर मुक्तिको पाता है। विभक्त आत्मस्वरूपकी भावना - इन जीवोको यहाँकी बातें बहुत बड़ी मीठी लगती है, पर एक बार सभी झंझटोंसे छूटकर शुद्ध आनन्दमें पहुंच जाय तो यह सबसे बड़ी उत्कृष्ट बात है। जो सदाको संकटोसे छुटानेका उपाय है उस उपायका आदर किया जाय तो यह मनुष्य जीवन सफल है, अन्यथा बाहृा में कुछ भी करते जावो, करता भी यह कुछ नही है, केवल विकल्प करता है। कुछ भी हो जाय बाहा पदार्थमें किन्तु उससे इस आत्माका भला नही है। समस्त प्राणियोको मन, वचन, कायके संयोगसे ही दुखसमूहका भाजन बनना पड़ा है। अब मैं मनसे, वचनसे, कायसे अर्थात् बड़ी दृढता से इन सबका परित्याग करता हूं, और मैं केवल ज्ञानानन्दस्वरूपमात्र हूं इस अनुभवमें बसूंगा, ऐसा ज्ञानी यथार्थ चिन्तन कर रहा है और अपने आपको सर्व विविक्त केवल ज्ञानानन्दस्वरूपमात्र अनुभव करता है। न मे मृत्युः कुतो भीतिर्न में व्याधिः कुतो व्यथा। नाहं बालो न वृतोऽहं न युवैतानि पुद्गले ।।29 ।। ज्ञानी के मरणभयका अभाव – मेरे मृत्यु नही है, फिर मेरे भय कहाँसे पैदा हो? जब मेरे मे व्याधि ही नही है तो व्यथा कहाँ से बने? मैं बालक नही, वृद्ध नही और जवान भी नही हूं। ये सब दशाये पुद्गलमें होती है। ज्ञानीके मरणभयका अभाव - जिस जीवको अपने चिदानन्दस्वरूप आत्मतत्वका निश्चय हो जाता है उस जीवके मृत्यु नही होती है। ये बाहा प्राण, इन्द्रिबल, कायबल, आयु, श्वासोच्छवस मिट जाते है, परन्तु मैं नही मिटता। ये विकारभाव है। लोकमें इन प्राणोके वियोग का नाम मरण कहा है किन्तु वास्तवमें प्राणोके दूर हो जानेपर उसका विनाश नही होता है। मैं मृत्युरहित हूं। शरीर मुझसे भिन्न है, विपरित स्वभाव वाला है। यह मै परमार्थ चैतन्यतत्व हूं। इसका कभी विनाश नही है, शरीरका विनाश है। शरीर का वियोग शरीर का बिछुड़ना शरीरकी स्थिति है, जीवकी नही है। आत्माका स्वरूप आत्मा का प्राण ज्ञानदर्शन है, चैतन्यस्वरूप है, उसका कभी भी अभाव नही होता है, इस कारण जीवका कभी मरण ही नही है, यह निर्भय निःशक रहता हुआ अपने स्वरूपका अनुभव कर रहा है। 120
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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