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________________ भ्रममें अशांति व अस्थिता - भैया ! जब तक भ्रम लगा है तब तक चैन नही हो सकती। कोई कितना ही प्रिय मित्र हो, किसी प्रवृत्तिको देखकर भ्रममे यह बात बैठ जाय कि अब अमुक तो मेरे विराध मे है, तो इस विरोध मान्यताकी भावनासे यह बेचैन हो गया। विरोध उपयोगमें पड़ा हुआ है इसलिए उस मित्रकी सारी चेष्टाएँ विरोधरूप दीखती है, इससे विराध भावना और बढ़ जाती है, चैन नही मिलती है भ्रममे। फिर यहाँ तो आत्मा का भ्रमहो गया, पूरा मिथ्या आशय बन गया है। जो मैं नही हूँ उसे मानता है कि यह मैं हूँ| बस इस आशय से ही क्लेश हो गया, किसी एक बात पर थमकर ही नही रहता यह मोही जीव। किसी को अपना मानता है तो उस ही को अपना मानता रहे, देखो किसी दूसरे को अपना न माने, जरासी दृढ़ता कर ले, पर मोहमें यह भी दृढ़ता नही रहती है। सच बात हो तो दृढ़ता रहे। झूठ बातपर टिकाव कैसे हो सकता है? पर्यायमें मोहकी अदल बदल - यह मोही जीव इस देहको आत्मा मानता है तो देखो इस देहकी ही आत्मा मानते रहना, फिर कभी हट न जाना अपनी टेकसे। अहो हट जाता है टेकसे। मृत्यु हुई, दूसरा शरीर धारण किया, अब उस शरीर को अपना मानने लगा। आज कैसा सुडौल है, अच्छे नाक, आँख, कान है और मरकर मगरमच्छ बन गये तो उस धावाथूल शरीरको ही अपना सर्वस्व मानने लगा। जीव मै वही हूँ। अब जिस पर्यायमें गया उसको ही मैं माना। इस मनुष्यको ये भैसा, बैल, सूकर, कूकर आदि न कुछसे विचित्र मालूम होते है बेढगे कहाँसे हाथ निकल बैठे, और कैसा पूरे अंगोसे चल रहे है। सब बेढ़गे मालूम होते है, सम्भव है कि इन सूकर, कूकर, गाय, भैसोको भी यह मनुष्य बेढंगा मालूम होता होगा। जिसको जो पर्याय मिली है उसको वह अपनी उस ही पर्यायको सुन्दर सुडौल ढगंकी ठीक मानता है, उसके अतिरिक्त अन्य देह आकार ढांचे तो बेढंगे मालूम होते है। कुटेव में स्थिरता व शांति का अभाव - यह जीव किसी एक बातपर थमकर ही नही रहता। चाहे तुम धनको प्रिय मानते हो, सर्वस्व मानते हो तो मानते ही रहो, देखो टेकसे हट मत जाना। लेकिन अपने शरीर में कोई व्याधि हो जाय या कुटुम्ब के लोग कोई विपत्ति में पड़ जाये तो उस ही धनको बुरी तरह खर्च कर डालते है। यह टेक नही निभा पाता, किसी भी चीज में स्थिर नही हो पाता। यह अनेक इन्द्रियविषयसाधनोको ग्रहण कर करके डोलता है, दुःखी रहता है। यह जीव संसारमें तब तक भ्रमण करता रहता है जब तक मन, वचन, कायको यह मैं ही हूँ ऐसी प्रतीति रखता है। भेदप्रयोग - भैया ! यह भ्रमबुद्वि दूर हो, शरीर मै नही हूं ऐसी प्रतीति करे, छोड़ा तो जा सकता है शरीरका ध्यान, न शरीर को ज्ञानमें ले। यह जाननहार ज्ञान स्वंय क्या है, इसका स्वयंका स्वरूप क्या है, यह बुद्वि लायें तो क्या लायी नही जा सकती? छोड़ दो इस शरीरका विकल्प। वचनोंका भी विकल्प त्यागा जा सकता है। पर कायके विकल्पसे कठिन वचनका विकल्प है। ये दोनो भी त्यागे जा सकते है, पर मनका विकल्प सबसे कठिन है। 119
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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