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________________ हुआ समय जाना भी नही जा रहा है मेरी इतनी आयु हो गयी है कुछ जाना ही नही जाता है लेकिन सभी जीव चाहे बड़े यशस्वी हो सभीपर यह बात आयगी। जो समागम मिला है वह किसी दिन आवश्य बिछुड़ेगा। अब जब बिछुड़ेगा तो वही वही क्लेश जो औरोके आता है, इसे भी आयगा। तो जो पदार्थ जैसा नही है वैसा मानना अर्थात् वस्तुस्वरूपसे उल्टी धारणा बनाना, इसमें दुःखी होना प्राकृतिक बात है। इस ही वैभव के ममत्व के कारण दुःख है। किसी अन्य पदार्थ के होने अथवरा न होने से दुःख नही है। इस संसारकी जड़ अज्ञान है। कितने ही लोग तो इस संसारपर दया करके कह देते है कि ला सभी लोग ब्रह्माचारी हो गए तो संसार कैसे चलेगा? सभी ज्ञानी वैरागी हो गए तो संसारकी क्या हालत होगी? उनको संसारपर तरस आती है, दया आती है। कही संसारकी वृद्वि में बाधा न हो, देखा इस अज्ञानीका बहाना। ज्ञान, वैराग्यसे क्लेशक्षय - बहुत तीक्ष्ण धारा है इस कल्याणमार्गकी, किन्तु जो इस ज्ञानवैराग्यकी धारापर उतर गया और निरूपद्रव पार कर गया वह संकटो से सदा के लिए मुक्त हो जाता है। जितने भी यहाँ क्लेश है वे सब मन, वचन, कायकी क्रियाओके अपनाने में है। इस जीव ने मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति की, उससे आत्मयोग हुआ, प्रदेश परिस्पंद हुआ, कर्मोका आस्रव हुआ और साथ ही इसमें मिथ्या आशय और क्रोधादिक कषायोंसे कर्मोका बंध हुआ। अब ये बद्व कर्म जब उदयकाल में आती है, आये थे तब इस जीवको विभाव परिणति होती है व हुई और चक्रकी तरह ये भावकर्म द्रव्यकर्म चलते ही रहे। उनके फलमें सुखी दुःखी होना, इष्ट अनिष्ट लगना सब दुःख परम्पराये बढ़ती चली आयी। सो सारे दुःखका झगड़ा लो यों मिट जायगा।कि इस मनको, वचनको, और काय को अपनेसे भिन्न मान ले। ऐसा भिन्न माननेमें यह धीर साहसी आत्मा उस विपदाके पहाड़के नीचे भी पड़ा है तब भी बलिष्ठ है, उसे रंच भी श्रम नही होता है। भेदाभ्यासके बिना संकट विनाशका अभाव - इस जीवका संसरण तब तक है जब तक मन, वचन, कायको अपना रहा है। कितना क्लेश है? किसीने प्रतिकूल बात कही, निन्दाकी बात कही तो यह चित्त बेचैन हो जाता है। क्या हुआ किसीने कुछ उसे कहा ही न था। वे वचन भी मायारूप, वह कहने वाला भी माया रूप, यह सोचने वाला भी माया रूप, और उस आत्मा की प्रवृत्ति से वचन भी नही निकलते निमित्तनैमित्तिक सम्बंधमें उन वचन वर्गणावोसे वचन परिणति हुई और वे वचन मुझमें किसी प्रकार आ ही नहीं सकते। यह प्रभुरूप है इसलिए जान लिया इसने सब। अब रागसे प्रेरित होकर कल्पना मचाता है। उसने हमें यो कह दिया! उन कल्पनावोंमें परेशान हो जाता है। एक यह निर्णय बन जाय कि यह शरीर ही मै नही हूं फिर सम्मान अपमान कहाँ ठहरेगे? मन, वचन, काय इन तीनोको जो त्याग देता है, इनसे भिन्न केवल शुद्ध ज्ञानास्वरूपमात्र अपनेकी निरखता है तो इस भेदके अभ्याससे इस जीवको मुक्ति होती है। 118
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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