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________________ को रात दिन मिला करे, ऐसा ही आराम रोज-रोज मुझे मिलता रहे? जब कोई पुरूष बिमार हो जाता है तो उसकी खबर लेने वाले लोग अधिक हो जाते है, हट्टे कट्टे मे कोई ज्यादा प्रिय बातें नहीं बोलते। बीमार हो जाने पर रिश्तेदार, मित्रजन कुटुम्बीजन बहुत प्रेमपूर्वक व्यवहार करते है। इतना आराम होने पर भी रोगी पुरूष तो यह चाहता है कि मै कब इस खटिया को छोड़कर दो मील पैदल चलने लगें। यो ही ज्ञानी वर्तमान संग में आस्था नही रखता है। ज्ञानी की प्रवृत्ति के प्रयोजन पर एक दृष्टान्त – यह रोगी दवाई भी सेवन करता है और दवाई समय पर न मिले तो दवाई देने वाले पर झुझंला भी जाता है, दवा क्यां देर से लाये? बड़ा प्रेम वह दवाई से दिखाता है, उस औषधि को वह मेरी दवा, मेरी दवा - ऐसा भी कहता जाता है, उसको अच्छी तरह से सेवता है, फिर भी क्या वह अंतरंग में यह चाहता है कि ऐसी औषधि मुझे जीवनभर खाने को मिलती रहे? वह औषधि को औषधि न खाना पड़े इसलिए खाता है, औषधि खाते रहने के लिए औषधि नही खाता। ऐसे ही ज्ञानी पुरूष अपने-अपने पद के योग्य विषयसाधन भी करे, पूजन करे, अन्य अन्य भी विषयो के साधन बनाएँ तो वहाँ पर ये ज्ञानी विषयो के लिए विषयो का सेवन नही करते, किन्तु इन विषयो से शीघ्र मुझे छुट्टी मिले इसके लिए विषयो का सेवन करते है। ज्ञानी की इस लीला को अज्ञानी जन नही जान सकते। ज्ञानी की होड़ के लिए अज्ञानी भी यदि ऐसा कहे तो उसकी यह कोरी बकवाद है। कर्मबन्ध का कारण - कर्मबंध आशय से होता है। डाक्टर लोग रोगी की चिकित्सा करते है, आपरेशन भी करते है और उस प्रसंग में कोई रोगी कदाचित् गुजर जाय तो उसे कोई हत्यारा नही कहता है, और न सरकार ही हत्यारा करार कर देती है आशय उसका हत्यारा का नही था, और एक शिकारी शस्त्र बंदूक लिए हुए बन में किसी पशु पक्षी की हत्या करने जाय, और न भी वह हत्या कर सके तो भी उस सशस्त्र पुरूष को लोग हत्यारा कहते है, सरकार भी उसे हत्यारा करार कर देती है। आशय से कर्मबधं है, ज्ञानी जीव को अपने किसी भी परिणमन में आसक्ति नही है, अहंकार नही है। पर्यायबुद्वि सबसे बड़ा अपराध है। जो अपने किसी भी वर्तमान परिणमन में 'यह मै हूं' ऐसा भाव रखता है उस पुरूष के कर्मबधं होता है, और जो विरक्त रहा करता है उसके कर्मबधं नही होता है। सारभूत शिक्षा - पूज्य श्री कुन्दकुन्द प्रभु ने समयासार में बताया है और अनेक अध्यात्म योगियों ने अपने ग्रन्थों में बताया है। जो जीव रागी होता है वह कर्मो से बँधता है, जो जीव रागी नही होता है वह कर्मो से छूटता है, इतना जिनागम के सार का संक्षेप है। जिन्हे संसार संकटो से मुक्त होने की अभिलाषा हे उन्हें चाहिए कि प्रत्येक पदार्थ को भिन्न और मायामय जानकर उनमें राग को त्याग दे। उनमें रूचि करने का फल केवल क्लेश ही है और विनाशीक चीज में ममता बना लेना यह बालकों जैसा करतब है। किसी पानी भरी 182
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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