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कर सकेगी, तुम्हारे हित के करने वाले मात्र तुम ही हो, इससे अपने आपके कल्याण का उद्यम करना श्रेयस्कर है।
ज्ञानी की दृष्टि - ज्ञानियो के ऐसी शुद्व दृष्टि जगी है कि वे उस दृष्टि को छोड़ नही सकते है। नट कितने भी खेल दिखाये और किसी बांस पर चढ़कर गोल – गोल फिरे, रस्सी पर पैरों से चले, इतने आश्चर्यजनक खेल नट दिखाता है, पर उस नट की दृष्टि किघर है, कार्य क्या कर रहा है और दृष्टि किघर है? उसमें भेद है। जो कर रहा उस पर दृष्टि नही है। मनुष्य भी जब चलता है तो जिस जमीन पर पैर रखता है उस जमीन को देखकर नही चलता है, अगर उतनी जगह को देखकर चले तो चल नही सकता है, गिर पड़ेगा। उसकी दृष्टि प्रकृत्या चार हाथ आगे रहती है। पैर जिस जगह रखा जा रहा है उस जगह को देखकर कौन पैर रखता है? क्रिया होती है, दृष्टि उससे आगे की रहती है। केवल क्रियावो पर ही दृष्टि रहे तो उसका मार्ग रूक जायगा, आगे बढ़ ही नही सकता है। यो यह ज्ञानी प्रत्येक क्रियावो में अपने अंतः स्वरूप में मग्न रहने का यत्न करता है।
ज्ञानियों की अलौकिकी वृत्ति - जिसने अपने आत्मतत्ट को स्थिर किया है उसके ही ऐसी अलौकिक वृत्ति होती है। ज्ञानी और अज्ञानी का प्रवर्तन परस्पर उल्टा है। जिसे ज्ञानी चाहता है उसे अज्ञानी नही चाहता, जिसे अज्ञानी चाहता है उसे ज्ञानी नही चाहता। साधु संत ऐसे ढ़ग का कमण्डल रखते है कि किसी अंसयमी को चुराने तक का भी भाव न हो सके, और की तो बात जाने दो। यह ज्ञानी अज्ञानियों से कितना उल्टा चल रहा है? दुनिया चटक मटक का बर्तन रखती है ओर वे साधु एक काठ का कमंडल रखते है, और मौका पड़ जाय तो कुछ समय के लिए वन में पड़ी अस्वामिक मिट्टी का बर्तन या तूमड़ी आदि का वे प्रयोग कर लेते है, असंयमी जन पंलग गद्दा तकियो पर लेटने का यत्न करते है, ज्ञानी जन जमीन में ही लोटते है कभी कोई परिस्थिति आए तो वे कुछ तृण सोध बिछाकर लेट रहते है, कितनी परस्पर में उल्टी परिणति है। जो लोक न कर सके वह किया जाय उसका नाम है अलोक की वृत्ति। ऐसे अलौकिक निज परमार्थ कार्यो में दृष्टि होने पर भी कितनी ही परिस्थितियाँ ऐसी होती है कि वे अन्य विषयक कार्य भी करते है किन्तु वे कार्य करते हुए भी न करते हुए की तरह है।
वर्तमान संग मे ज्ञानी की अनास्था पर एक दृष्टान्त - एक अमीर पुरूष रोगी हो जाय तो उसके आराम के कितने साधन जुटाए जाते है, अच्छा हवादार और मनः प्रिय कमरे में आसन बिछाना, कोमल पलंग गद्दे रोज-रोज कपड़े धुलकर बिछाए जाएँ, दो चार मित्र जन उसका दिल बहलाने के लिए उपस्थित रहा करे, समय समय पर डाक्टर वैद्य लोग आकर उसकी सेवा किया करे, एक दो नौकर और बढ़ा दिय जाये, कितने साधन है इतने आराम के साधन होने पर भी क्या रोगी यह चाहता है कि ऐसा ही पलंग मेरे पड़ने
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