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________________ प्रत्येक प्रसंग में ज्ञानी की अन्तः प्रतिबुद्वता तत्वज्ञानी पुरूष ज्ञानका ही कार्य करेगा और अज्ञानी पुरूष अज्ञानका ही कार्य करेगा। जैसे स्वर्ण धातुसे लोहेका पात्र नहीं बनाया जा सकता और लोहे की धातुसे स्वर्णका पात्र नही बनाया जा सकता अथवा गेहूं बोकर चना नही पैदा किया जा सकता और चना बोकर गेहूं नही पैदा किया जा सकता। ऐसे ही अज्ञानी जीव, अभच्य जीव धर्मके नाम पर बहुत बड़ा ढोगं रचे तिस पर भी उनके अतरंग ज्ञान कैसे प्रकट हो सकता है और ज्ञानी पुरूष किसी परिस्थितिमें अयोग्य भी व्यवहार करता हो तो भी वह भीतरमें प्रतिबुद्ध रहता है। श्री रामका दृष्टान्त सब लोग जानते है । जब लक्ष्मणकी मृत्यु हो गई थी उस समय उनको कितनी परेशानी और विहलता थी? जब सीताका हरण हुआ था उस समय भी कितनी विहलता थी? उस समय के लोग उन्हे अपने भीतरमें पागल कहे बिना न रहते होंगे, वह स्थिति बन गयी थी । किन्तु वे महापुरूष थे, रहे । श्रीरामकी अन्तः प्रतिबुद्वताका उदाहरण भैया ! कैसे जाना कि राम संकटकाल में भी प्रतिबुद्ध थे? तो एक दो दृष्टान्त देखलो। जिस समय श्रीराम और रावणका युद्ध चल रहा था उन दिनोमे रावण शान्तिनाथ चैत्यालयमें बैठकर बहुरूपिणी विद्या सिद्ध कर रहा है । लोगो ने राम से कहा कि रावण बहुरूपिणी विद्या सिद्ध कर रहा है। उसने यह विद्या यदि सिद्ध कर ली तो फिर उसका जीतना कठिन है, इस इस कारण विद्या सिद्ध ने होने दे, उसमें विघ्न डाले, उसका उपयोग भ्रष्ट कर दे, इसकी ही इस समय आवश्यकता है। तब राम बोले कि वह चैत्यालयमें बैठा है, अपनी साधना कर रहा है, उसमें विघ्न करनेका हमें क्या अधिकार? रामने इजाजत नही दी कि तुम रावणकी इस साधनामें विघ्न डालों । विवेकी थे तभी तो विवेकीकी बात निकली। फिर क्या हुआ यह बात अलग है। कुछ मनचले राजाओ वहाँ जाकर थोड़ा बहुत उपद्रव किया। राजाओं द्वारा उपद्रव किया जाने पर भी रावण अपनी साधनासे विचलित नही हुआ । तब जो विद्या अनेक दिनोमें सिद्व हो सकती थी वह मिनटोमें ही विद्या सिद्ध हो गई । - — निर्भयताके लिये अन्तःसाहसकी आवश्यकता - भैया! खुद मजबूत होना चाहिए फिर क्या डर है? स्वयं ही कायर हो, भयशील हो तो दुःखी होगा ही। कोई दूसरा पुरूष उसे कदाचित् भी दुःखी नही कर सकता। मैं ही दुःखके योग्य कल्पना बनाऊँ तो दुखी हो सकता हूं। क्या दुःख है, दुःख सब मान रहे है। हर एक कोई यह अनुभव करता है कि मेरे पास जो वर्तमानमें धन है वह पर्याप्त नही है, मेरी पोजीशको बढ़ाने वाला नही है। इस कल्पना से सभी जीव दुःखी है और देखो तो कही दुःख नही है, जिसके पास जो स्थिति है उससे भी चौथाई होती तो क्या गुजारा न होता ? जिसके पास इस सम्पत्तिका हजारंवा भाग भी नही है क्या उसका गुजारा नही होता है? होता है और उनके सद्बुद्धि है तो वे 151
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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