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________________ बनाये जा सकते है। उपादान ही विपरीत है तो वे ज्ञानको कैसे ग्रहण करेगें? बल्कि वे अज्ञान ही ग्रहण करेंगे। योग्यतानुसार परिणमन - जब तीर्थकरोंका समवशरण होता था उस मसवशरणमं अनेक जीव अपना कल्याण करते थे और अनेक जीव उस समय ऐसे भी थे कि प्रभुको मायावी, इन्द्रजालिया, ऐसे अनेक गालियोके शब्द कहकर अपना अज्ञान बढ़ाया करते थे, वे कल्याणका पथ नही पा सकते थे। हुआ क्या, प्रभु तो वहीके वही, अनेकोने तो कल्याण प्राप्त कर लिया और अनेकोने दुर्गतियोंका रास्ता बना लिया। ये सब जीवोंकी अपनी-अपनी योग्यताकी बातें है। जो पुरूष अज्ञान दशाको छोड़कर ज्ञान अवस्थाको प्राप्त करना चाहते है वे अपनी ही योग्तासे ज्ञानी बनते है। अन्य जन तो निमित्तमात्र है, ऐसे ही जो पुरूष पाप करना चाहते है पापोमे मौज मानते है वे अपनी ही अशुद्ध परिणतिसे पापोका परिणाम बनाते है। अन्य जो विषयोके साधन है वे निमित्तमात्र है। योगीश्वरो का ज्ञानसे अविचलितपना - जो योगीश्वर सम्यग्ज्ञानके प्रकाशसे मोहान्धकारको नष्ट कर देते है, जो तत्व दृष्टि वाले है, यथार्थ ज्ञानी है, शान्तस्वभावी है, ऐसे योगीश्वर किसी भी प्रसंगमें अपने ज्ञानपथको नही छोड़ते है। यह साहस सम्यग्दृष्टिमें है कि कैसा भी विपदा, कैसा भी उपसर्ग आ जाय तिसपर भी वे अपने ज्ञानस्वभावको नही छोड़ सकते। परपदार्थ कैसे ही परिणमें, पर सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरूष उसके ज्ञाता द्रष्टा मात्र रहते है। किसी कवि ने कहा है कि गाली देने वाला पुरूष गाली देता है और सज्जन पुरूष विनय प्रकट करता है, तो जिसके समीप जो कुछ है उससे वही तो प्रकट होगा। परिणमनकी उपादानानुसारिता - ज्ञानी पुरूष दूसरोके गुण ग्रहण करता है, दोष नही ओर अज्ञानी पुरूष दूसरोंके गुण नही ग्रहण कर सकता, दोष ही ग्रहण करेगा। जो जैसा है वह वैसा ही परिणमता है, कहाँ तक रोका जाए ? मूर्ख पुरूष किसी सभा में सजधजकर बैठा हो तो कहाँ तक उसकी शोभा रह सकती है? आखिर किसी प्रसंगमें कुछ भी शब्द बोल दिया तो लोग उसकी असलियत जान ही जायेगे। तोतला आदमी बड़ा सजधकर बैठा हो मौजसे तो उसकी यह शोभा कब तक है जब तक कि वह मुखसे कुछ बोलता नही है। बोलने पर तो सब बात विदित हो जाती है। जो लोग भीतरसे पोले है और आर्थिक स्थिति ठीक नही है और बहुत बड़ी सजावट करके लोगोमें अपनी शान जतायें तो देखा होगा कि किसी प्रसंगमें वे हँसेगे तो वह हँसी कुछ उड़ती हुई सी रहती है, और जानने वाले जान जाते है कि ये बनकर हँस रहे है, इनके चित्तमें इस प्रकारकी स्वाभाविक हँसी नही है जो स्वाभाविक बात आ सके। कहाँ तक क्या चीज दबाई जाय, जिसमें जैसा उपादान है वह अपने उपादानके अनुकूल ही कार्य करेगा। 150
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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