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________________ धर्ममे लगे हुए है। क्या कष्ट है, पर कल्पना उठ गई इससे सुख सुविधाओ का भी उपयोग सही नही किया जा सकता। बुद्विके अनुसार घटनाका अर्थ - जिसका जैसा उपादान है। वह अपने उपादानके अनुकूल ही कार्य करेगा। एक नावमें कुछ लोग बैठे थे। कुछ गुण्डोने उनको गालियाँ दी तो वे समतासे सहन कर गए। वे गुन्डे यह कहते जाये कि ये चोर है, बदमाश है, झूठे है, ढोगी है आदि तो साधु कहते है कि ये लोग ठीक कह रहे है हम चोर है, बदमाश है। झूठे है अन्यथा इस संसारमें क्यो भटकते? आप लोग इन पर कयो नाराज होते हो? खैर जब तक बातें हुई तब तक तो ठीक, लेकिन एक उद्दण्ड ने एक साधुके सिरमें तमाचा भी मार दिया। तो वह साधु कहता है कि आप लोग इस पर नाराज मत होओ। यह भाई यह कह रहा है कि तुमने अपना सिर प्रभुके चरणोमें भक्तिपूर्वक नमाया नही है इसलिए यह सिर तोड़ने योग्य है, यह मुझे शिक्षा दे रहा है। नाराज मत होओ। चीज वहीकी वही है, चाहे गुण ग्रहण करने लायक कल्पना बना लें और चाहे दोष ग्रहण करने लायक कल्पना बना ले। ज्ञानी पुरूष गुणग्रहणकी कल्पना बनाते है और अज्ञानी पुरूष दोषग्रहण करनेकी कल्पना बनाते है जो पुरूष दूसरोके दोष ग्रहण कर रहा है उसने देसरेका बिगाड़ा क्या, खुदका ही उसने बिगाड़ कर लिया। योग्यताकी संभालमें ही सुधार - जितने भी पदार्थ हे वे सब अपनी योग्यताके अनुकूल परिणमते है। इन सब कथनोसे यह रस्पष्ट किया गया है कि ज्ञानी बनने की सामर्थ्य भी अपनी आत्मामे है और अज्ञानी बननेकी सामर्थ्य भी अपनी आत्मामें है। गुरूजन तो बाहा निमित्त कारण है। जिसे कामी बनना ही रूचिकर है उसको फोटो या कोई स्त्री पुरूष रूपवान कुछ भी दीखे तो सब निमित्तमात्र है, पर स्वंय में ही ऐसी कलुषता है योग्यता है जिसके कारण वे काम के मार्ग में लग जाते है। कोई पुरूष क्रोधस्वभाव वाला है, उसको जगह-जगह क्रोध आने का साधन जुट जाता है और कोई शान्तस्वभावी है तो उसे किसी भी विषय में क्रोध नही आता है। इससे यह जानना कि अपनी योग्यता संभाले बिना अपने आपका सुधार कभी हो नही सकता हे। उपादान के परिणमन में अन्य का निमित्तपना - भैया! दूसरे का नाम लगाना क्या करे, अमुक है, ऐसा है इसलिए हमारा काम नही बनता, ये सब बहानेबाजी है। राजा जनक के समय में एक गृहस्थ आया, जनक बैठे थे। बोले महाराज हम बहुत दुःखी है, मुझे गृहस्थ ने फंसा रक्खा है, धन वैभव ने हमें जकड़ रक्खा है, मुझे साधुता का आनन्द नही मिल पाता है, तो आप कोई ऐसा उपाय बताओ कि वे सब मुझे छोड़ दे ? तो जनक से कुछ उत्तर ही न दिया गया। और सामने जो खम्भा खड़ा था उसको अपनी जोट में भर कर कुछ चिल्लाने लगे कि भाई-भाई मै क्या करूँ, मुझे तो इस खम्भे ने जकड़ लिया है। मै कुछ जवाब नहीं दे सकता। मुझे यह खम्भा छोड़ दे तो फिर जवाब दूँ, | तो गृहस्थ 152
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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