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बोला- महाराज ! कैसे आप भूली भूली बातें करते है। अरे खम्भे ने आपको जकड़ लिया है कि आपने खम्भे को जकड़ लिया है ? तो राजा जनक कहते है कि बस यही तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है। धन, दौलत, कुटुम्ब ने तुमको फंसा रक्खा है कि तुमने खुद उनको फंसा रक्खा है तो कोई किसी को न ज्ञानी बना सकता है, न अज्ञानी बना सकता है। निमित मात्र अवश्य है। इस कारण ज्ञान की प्राप्ति के लिए गुरूओ की सेवा सुश्रूषा करना कर्तव्य है, उनमें श्रद्वा भक्ति कर्तव्य हे परन्तु परमार्थ से अपने आत्मा को ही अपना मार्ग चालक जानकर अपने पुरूषार्थ और कर्तव्य का सदा ध्यान रखना चाहिए ।
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अभवच्चित्तविक्षेप एकान्ते तत्वसंस्थितिः ।
अभ्यस्येदभियोगेन योगी तत्वं निजातमनः । 36 ।।
आत्मतत्वाभ्यास की प्रेरणा जिसके चित्त में किसी भी प्रकार का विक्षेप नही है अर्थात् रागद्वेष की तरंग की कलुषता नही है, तथा जिसकी बुद्धि एकान्त में तत्व में लगा करती है ऐसा योगी निज तत्व का विधिविधान सहित योग साधना समाधि सहित ध्यान का अभ्यास करता है। आत्मस्वरूप के अभ्यास का उपाय क्या है, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए श्लोक में यह बाताय है कि रागद्वेष का क्षोभ न हो तो तत्वचिन्तन का अभ्यास बने । रागद्वेष का क्षोभ न हो इसके लिए यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान चाहिए । सो सर्वप्रयत्न करके अध्यात्मयोगार्थी को आत्मतत्व का अभ्यास करना चाहिये ।
सर्वत्र ज्ञान लीला भैया! सब कुछ लीला ज्ञान की है, सर्वत्र निहार लो, जो आनन्द में रत है, योगी है उनके भी ज्ञान की लीला चल रही है। जो दुःखी पुरूष है, जो दुःख की कल्पना बनाते है तो कल्पना भी तो ज्ञान से ही सम्बन्ध रखने वाली चीज हुई ना, कुछ तो ज्ञान में आया, किसी प्रकार की जानकारी तो बनायी उसका क्लेश है । वहाँ भी ज्ञानकी एक लीला हुई । जो पुरूष आनन्द में रत है उसने भी अपना विशुद्व ज्ञान बनाया, उस विशुद्ध ज्ञान का उसे आनन्द है, वहाँ तो ज्ञान की विशुद्व लीला है ही । यो योगी अपने तत्वचिन्तन का अभ्यास बनाता है ।
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चित्त का विक्षेप महती विपदा - चित्त का विक्षिप्त हो जाना यह महती विपत्ति है । किसी धनी पुरूष के कोई पागल बिगड़े दिमाग का कम दिमाग का या जिसके चित्त में विक्षेप होता रहे ऐसे दिमाग का बालक हो तो लोग इसके रक्षक माता पिताजन रिश्तेदार वगैरह हजारो लाखो का खर्च करके भी चाहते है कि उसके चित्त का विक्षेप बदल दे तो ऐसा उपाय करते है। पर हैरान हो जाते है, दुःखी ही रहते है। कदाचित् ठीक हो जाय तो उसके ही होनहार से वह ठीक होता है। दूसरे लोग उसमें कुछ अपना करतब नही अदा कर सकते है । चित्त का विक्षिप्त हो जाना यह जब तक बना रहेगा तब तक रागद्वेष का क्षोभ रहेगा। इस आकुलता के कारण आत्मस्वरूप का ध्यान नही बन सकता। किसी मनुष्य के द्वारा कुछ अपने को कष्ट पहुंचे, कष्ट तो नही पहुंचा, पर किसी मनुष्य का बोल सुनकर
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