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से भी खराब योनि को । एक शरीर के अनन्त जीव स्वामी है। कितनी कलुषित निगोद की योनि है? वहाँ से निकलकर धीरे-धीरे विकास करके यह मनुष्य बना और अब यह अपने आश्रयभूत इस परमात्मप्रभु पर हमला करने लगा, विषय कषायो का परिणमन करने लगा, यही तो प्रभु पर अन्याय है। तो इस प्रभु ने भीतर से फिर आशीर्वाद दिया कि पुनः निगोदो भव। तू फिर से निगोद बन जा । तो मनुष्य जैसी उत्कृष्ट योनि पाकर फिर निगोद बन जाता है। ऐसे ये विकट कर्म बंधन है।
धर्म का आनन्द और कर्मक्षय इन विकट कर्म ईधनो को जलाने में समर्थ शुद्व आनन्द है, कष्ट नही है। धर्म कष्ट के लिए नही होता। धर्म कष्टपूर्वक नही होता। धर्म करते हुए में कष्ट नही होता। कोई पुरूष जो यथार्थ धर्मात्मा है वह धर्म करने की भावना कर रहा हो तो वह प्रसन्नता और आनन्दपूर्वक ही कर सकेगा, कष्ट में नही जिस काल में धर्म किया जा रहा है उस काल में भी कष्ट नही हो सकता है, वहाँ भी आनन्द ही झर रहा होगा और धर्म करने के फल में उसे आनन्द ही मिलेगा । आनन्द में ही सामर्थ्य है कि भव-भव से संचित कर्मो को क्षणमात्र में जला सकता है। " कोटि जन्म तप तपै ज्ञान बिन कर्म झरै जे! ज्ञानी के छिनमाहि त्रिगुप्ति तैं सहज टरेंते ।" अज्ञानी पुरूष बड़ी-बड़ी तपस्या करके करोड़ो भवो में जितने कर्म जला सकते है उतने कर्मो को ज्ञानी एक क्षण में ज्ञानबल से नष्ट कर देता है। इस मनुष्य - जीवन का सुन्दर फल प्राप्त करना हो तो एक निर्णय बना लो कि हमें ज्ञानप्रकाश का आनन्द लूटना है। घर में चार छः जन है ना, सो उनका कुछ ख्याल रहता है, तो उनको भी धर्म के रंग मे ऐसा रंग दो कि वे सब भी धर्मी बन जायें मोह रागद्वेष की फिर पद्वति न रहेगी। उनका भी भला करवा दो और अपना भी भला कर लो। दूसरे का भला करना अपने आधीन तो है नही लेकिन सम्बंध है तो व्यवहार ऐसा करो कि उनमें भी धर्मभावना जाग्रत हो, और एक ज्ञानप्रकाश के लिए ही मनुष्य जीवन समझो।
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धर्मपथ - भैया! आत्मा के हित का पंथ निराला है और दुनियादारी का पंथ निराला है। कोई मनुष्य चाहे कि मै दुनिया का आनन्द भी लूट लूँ और साथ ही आत्मा का हित भी कर लूँ तो ये दोनो बातें एक साथ नही मिलती है। निर्णय कर लो कि तुम्हें क्या प्यारा है? देखो दुनिया में अपना नाम कर जाने की धुन बनाना, धनसंचय की भावना बनाना, देश के लिए मर जाना, इनसे भी ज्ञानभावना प्रकट नही होती है। इस धर्मी को समूचे देश से अथवा धन वैभव से क्या मिलेगा? कुछ भी तो न मिलेगा। यह परोपकार के लिए नही है, किन्तु ज्ञानी पुरूष अपने को ज्ञान में, ध्यान में लीन होने में असमर्थ समझ रहा है जब तक तब तक विषय किन्तु ज्ञानी पुरूष अपने को ज्ञान, ध्यान में लीन होने में असमर्थ समझ रहा है जब तक तब तक विषय कषाय जैसे गंदे परिणाम मेरे मे घर न कर पायें उनसे बचने के लिए परका उपकार है। जो केवल पर के लिए ही परका उपकार समझतें है वे धर्म से भी
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