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________________ गये और धन से भी गए, और श्रम कर करके तकलीफ भी भोगी, और जो परोपकार का अंतः मर्म समझते है उनसे परोपकार भी वास्तविक मायने में हुआ, स्वयं भी प्रसन्न रह गया। मोक्षमार्ग भी, धर्मपालन भी साथ-साथ चला। अध्यात्मयोगी के संकटो मे खेद का अभाव – वह योगी पुरूष अपनी ध्यानसाधना में रहकर जिन संकटो को सामना कर रहा है उन्हे यह कष्ट नही समझता। लोग समझते है कि संकट आ रहे है लेकिन वह उन दुःखो को दुख नही समझ रहा है। वह तो अपने अनादिकाल से बिछुड़े हुए परमपिता, परमशराण चिदानन्दात्मक प्रभुता का दर्शन मिला, उस आनन्द में यह मग्न हो रहा है, और इस शुद्ध आनन्द का ही प्रताप है कि भव-भव के संचित कर्म उसके क्षण मात्र में नष्ट हो जाते है, उसे खेद नही होता। खेद करने से खोटे कर्मो का बंध होता है। प्रसन्नता तो तब मिल सकती है जब इन बाहापदार्थो मे मोह ममता का सम्पर्क न बढाये, ज्ञाताद्रष्टा रहे, जो कुछ बाहा में होता है उसके जाननहार रहे। दुनिया के अजायबघर में निःसंकट रहने का उपाय - यह दुनिया अजायबघर है, अजायबघर में दर्शको को केवल देखने की इजाजत है, छूने की या कुछ जेब में धरने की इजाजत नही है। यदि कोई आज्ञाविरूद्व काम करेगा तो वह गिरफ्तार हो जायगा, ऐसे ही ये सर्वसमागम अजायबघर है, परमार्थ नही है, इनको देखने की इजाजत है ईमानदारी से। छूने की इजाजत, अपनाने की इजाजत नही है। जो किसी भी अनात्मतत्व को अपनायेगा वह बंधन में पड़ेगा और अनेक भवों तक उसे कष्ट भोगना होगा। सब जीव है, एक समान है, उनमें से किसी एक दो को ही अंतरंग मे पकड़कर रह जाना है, इसका क्या फल मिलेगा? सो यह बिलबिलाता दृश्यमान जीवलोक ही प्रमाण है। अब तो ऐसा अंतः पुरूषार्थ बनायें और अपने आपके स्वरूप में रमने का यत्न करें जिससे संकटो का समूल विनाश है। इसके लिए सत्संगति, ज्ञानार्जन, परोपकार सब कुछ उपाय करे। आत्मदृष्टि से ही महारे संकट दूर हो सकेंगे। अविद्यााभिदुरं ज्योतिः परं ज्ञानमयं महत् । तत्प्रष्टव्यं तदेष्टव्यं तद्रष्टव्यं मुमुक्षुभिः ।।49 ।। आत्महितकर परमज्योति - आत्मा का परमहित करने वाला परमशरण तत्व क्या है? इस संबंध में बहुत पूर्व प्रंसग से वर्णन चल रहा है। आत्मा का हित आत्मतत्व के सहज ज्ञानज्योति के अवलम्बन में ही है वही जिन आत्माओ को इष्ट हो जाता है। उसका कल्याण होता है, किन्तु जो व्यामोही पुरूष केवल परिजन सम्पदा को ही इष्ट मान पाते है रात दिवस उन ही परिजनों की चिन्ता में समय खो दिया करते है उनका शरण इस लोक में कोई नही है। शरण तो किसी का कोई दूसरा हो ही नही सकता, हम तो हमारे लोक में कोई नही हे शरण तो लोक में कोई नही है। शरण तो किसी का कोई दूसरा हो ही नही सकता, हम ही हमारे शरण है। तब शरण होने की पद्धति से खुद में खुद का अनुभव किया 218
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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