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________________ जाय। यह ज्ञानज्योति यह शुद्ध ज्ञानस्वरूप जो निर्विकल्प स्थिति करके अनुभवो में आ सकने योग्य है यह ज्ञानज्योति समस्त चाह का भेदन कर देने वाली है। जैसे सूर्य प्रकाश गहन अंधकार को भी भेद देता है इस ही प्रकार ज्ञानज्योति भ्रम के गहन अंधकार को भेद देती है। अज्ञानान्धकार और उसका भेदन - भैया - कितना बड़ा अंधेरा यहाँ कि है तो मेरा परमाणु मात्र भी कुछ नही और उपयोग ऐसा पर की और दौड़ गया है कि परिजन और सम्पदा को यह अपना सर्वस्व मानता है। यह विचित्र गहन अंधकार है। सर्व पदार्थ विमुक्त हो जायेगें, इस पर अज्ञानी घुटने टेक देते है। जीवनभर कितने ही काम कर जाय अर्थात् कितनी ही धन सम्पदा निकट आ जाय, पर एक नियम सब पर एक समान लागू है। वह क्या कि सब कुछ छूट जायगा। इस व्यामोही जीवन ने यहाँ घुटने टेक दिये। वहाँ तो अज्ञान की प्रेरणा से रात दिवस खोटे-खोटे कार्यो में ही जुट रहे है लेकिन यहाँ वश नही चलता, और इसी कारण अज्ञानी मोहियो के दिमाग भी कभी-कभी सुधार पर आ जाया करते है। यह ज्ञानप्रकाश अज्ञान अंधकार को नष्ट करने वाला है। यह ज्ञानस्वरूप खुद का भी प्रकाश करता है और दूसरो का भी प्रकाश करता है। खुद ज्ञानस्वरूप है इसलिए खुद ज्ञान का प्रकाश कर ही रहा है, किन्तु इस ज्ञान में ये समस्त परपदार्थ भी आते हैं, उनका भी प्रकाश्ज्ञ है। यह उत्कृष्ठ ज्ञानरूप है। भेदविज्ञान से स्वातन्त्र्यपरिचय – वस्तु में पूर्ण स्वतंत्रता भरी हुई है, इसका जिस ज्ञानी को परिचय हो जाता है वह सम्यग्ज्ञान पर न्यौछावर हो जाता है। लोग कहा करते है कि मकान बनाया, दुकान बनाया, यह बात तो बिल्कुल विपरीत है। यह मनुष्य कहाँ ईट पत्थर को बनाता है। ईट पत्थर में अपना कुछ लगा दिया हो ऐसा तो कुछ नजर नहीं आता है। अब इससे और कुछ गहरे चलें तो यह कह देते है कि मकान दूकान तो नही बनाता है जीव किन्तु अपने-अपने पैरों को चलाता है। यह भी बात विपरीत है। आत्मा के हाथ पैर ही नही है। वह तो एक ज्ञानप्रकाश्ज्ञ है, आकाश की तरह अमूर्त और निर्लेप है, यह हाथ भी नही चलाता है, पैर और जिहा भी नही चलाता है। ये क्रियापरिणत हो जाते है निमित्तनैमित्तक संबंध से। इस बात का भी ख्याल रहा तो बतावेंगे। अब आगे और चलें तो यह ध्यान में आता कि आत्मा हाथ पैर भी नही चलाता है किन्तु रागद्वेष की कल्पनाओ को तो करता है, यहाँ भी विवेक बनाये। आत्मा है ज्ञानस्वरूप । आत्मा में रागद्वेष विकार करने का स्वभावतः कर्तृत्व नही है। ये रागादिक हो जाते है, इन्हे आत्मा करता नही है। दृष्टान्तपूर्वक वस्तुस्वरूप का परिचय – वस्तु का स्वतन्त्र परिणमन समझने के लिए एक दृष्टान्त लो - दर्पण सामने है, उसे दर्पण में सामने खड़े हुए दसों लड़को के प्रतिबिम्ब आ गए है। यद्यपि वह प्रतिबिम्ब दर्पण में हैं लेकिन दर्पण तो अपने में अपनी स्वच्छता की वृत्ति बना रहा है। ऐसे ही इस आत्मा में रागद्वेषो के परिणमन आ गए है, इस आत्मा ने 219
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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