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________________ रागद्वेषो को पैदा नही किया है। यह आत्मा रागद्वेषो का भी कर्ता नही है। इस समय बात अध्यायत्ममर्म की बात चल रही है और चलेगी, लेकिन ध्यान से सुनने पर सब सरल हो जायगा हाँ इन रागद्वेषो का भी करने वाला यह आत्मा नही है। निज में निज का परिणमन - अब कुछ और आगे चलकर यह समझ रहा हे जीव कि यह रागद्वेष का करने वाला तो है नही, किन्तु यह चौकी को, पुस्तक को, जितनी भी वस्तुऐ सामने आयी है उन सबको जानता तो है। अपने आत्मा को तकें जरा, यह कितने बड़ा है, कितनी जगह में फैला है, कैसा स्वरूप है? तब ध्यान में आयगा कि यह जो कुछ कर पाता है अपने प्रदेशो में कर पाता है, बाहर कुछ नही करता है। तब आत्मा में एक ज्ञानगुण है, इस ज्ञानगुण का जो भी काम हो रहा है वह आत्मा में ही हो रहा है , अतः इस आत्मा ने आत्मा को ही जाना, किन्तु ऐसा अलौकिक चमत्कार है इस ज्ञानप्रकाश में कि ज्ञान जानता तो है अपने आपको ही किन्तु झलक जाता है यह सारा पदार्थ समूह । जैसे हम कभी दर्पण को हाथ में लेकर देख तो रहे है, केवल दर्पण को, पर पीछे खड़े हुए लड़को की सारी करामातो को बताते जाते है तो जैसे दर्पण को देखकर पीछे खड़े हुए सारे लड़को की करामात बताते जाते है इसी तरह हम आप पदार्थो को जान नही रहें है किन्तु इन पदार्थों के अनुरूप प्रतिबिम्बित हम अपने ज्ञानस्वरूप को जान रहे है और इस अपने आप को जानते हुए में सारा बखान कर डालतें है। पर से असम्प्रक्त जीव का पर से कैसा नाता - भैया ! अब परख लिया अपने इस आत्मा को? इसका परपदार्थो के जानने तक का भी सम्बन्ध नहीं है, किन्तु यह मोही प्राणी यह मेरा कुटुम्बी है, सम्बन्धी है इत्यादि मानता है। अहो! यह कितना बड़ा अज्ञान अंधकार है? इस महान् अंधकार को भेदने वाली यह ज्ञानज्योति है। यह ज्ञानज्योति उत्कृष्ट ज्ञानस्वरूप है। इसका जिसे दर्शन हो जाता है उसकी समस्त आकुलताएं दूर हो जाती है। इस कारण हे मुमुक्ष पुरूषो! संसार के संकटो से छूटने की इच्छा करने वाले ज्ञानीसंत जनो!एक इस परम अनुपम ज्ञानज्योति की ही बात पूछा करो, एक इस ज्ञानस्वरूप की ही बात चाहा करो और जब चाहे इस ज्ञानस्वरूप की ही बात देखा करो, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ चीज न चाहने लायक है और न देखने लायक है। इस ज्ञानस्वरूप के दर्शन से अर्थात् अपने आपको मै केवलज्ञानमात्र हूं - ऐसी प्रतीति बनाकर उत्पन्न हुए परमविश्राम के प्रसाद से अनुभव करने वाले पुरूष के अज्ञान का सर्वथा नाश हो जाता है और अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति प्रकट हो जाती है, जिस ज्ञान के प्रसाद से समस्त लोक और अलोक को यह आत्मा जान लेता है। स्वकीय अनन्त तेज की स्मृति - हम आप सब मे अनन्त महान तेज स्वरसतः बसा हुआ है, लेकिन अपने तेज को भूलकर पर्यायरूप मानकर कायर बना हुआ यह जन्तु विषय के साधनो के आधीन बन रहा है। जैसे कोई सिंह का बच्चा भेड़ो के बीच पलने लगा तो 220
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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