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________________ पक्षी भी बन जाय तो भी क्या है, अक्षर नही बोल सकते। दूसरे की बात नही समझते। अटपट उनका भोजन, कैसी उनकी आकृति,? परंतु मनुष्य को देखो यह विवेक कर सके, सब पर हुकूमत कर सके, बड़े बड़े साहित्य रच सके, एक दूसरे के हृदय की बात समझ सके, कितने विकास वाला यह मनुष्य जीवन है? इतना विकास पाने के बाद यदि विषयकषाय पापों में ही अपना समय गंवाया तो उसका फल यह होगा कि जिन कुयोनियों से निकलकर मनुष्य पर्याय में आये है उन ही कुयोनियो में जन्म लेना पड़ेगा। आत्मप्रभुपर अन्याय के दुष्परिणाम का दृष्टान्तपूर्वक प्रदर्शन - एक साधु था। उसके पास एक चूहा बैठा रहा करता था। चूहा को साधु का विश्वास रहा करे सो वहाँ बैठ जाया करे। एक बार कोई बिलाव उस चूहे पर झपटा तो साधु ने आशीर्वाद दिया चूहे को कि विडालों भव, तू भी बिलाव हो जा, सो वह चूहा भी बिलाव हो गया, उस पर झपटा एक कुत्ता तो साधु ने आशीर्वाद दिया कि श्वानो भव। तू भी कुत्ता बन जा, सो वह कुत्ता हो गया। अब उस पर झपटा एक तेदुवा (व्याघ्र)। तो साधु ने आशीर्वाद दिया कि व्याघ्रो भव। तू व्याघ्र हो जा। सो वह कुत्ता भी व्याघ्र हो गया। उस पर झपटा एक शेर । सो साधु ने आशीर्वाद दिया कि सिंहो भव। तू सिंह बन जा। वह भी सिंह बन गया। अब उसे लगी भूख, सो उसने सोचा कि क्या खाना चाहिए? ध्यान आया कि अरे ये ही साधु महाराज तो बैठे है, इन्ही को खाकर पेट भर लेना चाहिए। सो ज्यों ही साधु को खाने का संकल्प किया और कुछ उद्यम करना चाहा त्यों ही साधु ने आशीर्वाद दिया कि पुनः मूषको भव, तू फिर चहा बन जा, वह फिर चूहा बन गया। अरे कितना उठकर सिंह बन गया और जरा सी गफलत में चूहा बनना पड़ा। ऐसे ही हम आपके भीतर विराजमान जो कारणपरमात्मतत्व है, परमब्रहृा स्वरूप है, विशुद्व समयसार है, ज्ञानानन्द स्वभाव है उसका आशीर्वाद मिला, कुछ विकास बना तो यह स्थावरों से उठकर कीड़ा मकोड़ा बना, उससे भी और बढ़कर पशु पक्षी बना, वहाँ से भी उठकर अब यह मनुष्य बना। अब मनुष्य बनकर इस परमब्रहास्वरूप पर, इस कारणपरमात्मतत्व पर हमला करने की ठान रहा है। आत्मदेव पर मनुष्य का अन्याय - जो मनुष्य विषय भोगता है, कषायो में प्रवृत्त होता है, मोह रागद्वेष को अपनाता है वह इस प्रभु पर ही तो अन्याय कर रहा है। जिस प्रभु के आशीर्वाद से , प्रभु के प्रसाद से जघन्य योनियों से निकलकर मनुष्य जैसे उत्तम पद में आए है, तो अब यह मनुष्य कैसी कलावो से विषयो का सेवन कर रहा है, यह कभी बैल, घोड़ा, गघा था। ये कलापूर्वक कुछ विषयसेवन नही कर पाते है और मनुष्य को योग्यता विशेष नही मिली ना, सो बढ़िया, साहित्यिक ढंग से बढ़िया रागभरी कविताएँ बनाकर कितनी कलावो से यह विषय भोग रहा है और कितना प्रसार कर रहा है? सब जीवों से अधिक अन्याय कर सकने वाला यह मनुष्य है, यह अपने आप के प्रभु पर अन्याय कर रहा है। यह जीव आनादि से निगोद अवस्था में था। निगोद कहते है, पेड़ और पृथ्वी 216
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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