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________________ अपने को भविष्य में कहाँ शान्त बना सकोगे? कोई यह न जाने कि हम मर गए तो आगे की क्या खबर है कि हम रहेगे कि नही रहेंगे, कहाँ जायेगें, दीपक है, बुझ गया फिर क्या है, ऐसी बात नही है। खुब युक्तियो से और अनुभव से साच लो। जो भी पदार्थ सत् है उस पदार्थ का समूल विनाश कभी नही होता है, कैसे हो सकेगा विनाश ? सत्व कहाँ जायगा? भले ही उसका परिणमन कितने ही प्रकारो से चलता रहे किन्तु उस पदार्थ का सतव मूल से कभी नष्ट नही हो सकता। यह बात पूर्ण प्रमाणसित है। अपनी चर्या - अब अपने आपके सम्बंध में सोचिए हम वास्तव में कुछ है। अथवा नही? यदि हम कुछ नही है तो यह बड़ी खुशी की बात है। यदि हम नही है तो ये सुख दुःख किसमें होगे? फिर तो कोई क्लेश ही न रहना चाहिए। मैं हूं और जो भी मैं हूं वह कभी मिट भी नहीं सकता, यदि इस भव से निकल जाऊँ तो भी मैं रहूंगा। उसके लिए अपने और अन्य जीवों का परिणमन देखकर निर्णय कर लीजिए। जो जगत में जीव दीख अपने ज्ञान अज्ञान के अनुकूल सुख दुःख पाना होगा। यह सम्पदा, ये ठाठ ये समागम कितने समय के लिए है? जो इन समागमो को अपने विषयवासना मे, विषयो की पूर्ति में ही खर्च करता है, तन, मन, धन, वचन सब विषयो की पूर्ति के लिए ही खर्च किए जा रहे है, तो यह अपने आपके उपयोग का बड़ा दुरूपयोग है। अपने लिए तो अपने खाने के लिए, पहिनने के लिए और श्रृगार के लिए जितनी अधिक से अधिक सात्विक वृत्ति रक्खी जायगी उतना ही भला है, और शेष जो कुछ भी समागम है यह ध्यान में रखना चाहिए कि ये सब पर के उपकार के लिए है। मुझे इन विभूतियों को विषयसाधनो में नही व्यय करना है। स्व की सुध - विषय साधना मेरा कुछ भला नही कर सकते है। ये विषयो के साधनभूत समस्त परपदार्थ है, इनके लिए कहा जा रहा है कि तू परका उपकार तज दे और निज के उपकार में तत्पर रह। है आत्मन्! अज्ञान अवस्था में तूने अपने चिदानन्दस्वभाव की सुध नही ली। जो आनन्द का निधान सर्वोत्कृष्ट है, जिस परमपारिणामिक भाव के आलम्बन से कल्याण होता है उस मंगलमय चैतन्यस्वरूप की सुध न ली जा सके और आदि परद्रव्य जो भी तुझे मिले है उनके संयोग में मौज माने, उनके पोषण में तू अपना ध्यान लगाये बड़े-बड़े कष्ट भी सहे, पर शरीर के आराम की ही बात तू सोचता रहे, यों पर के उपकार में रत रहे, इससे क्या सिद्वि है? अब उन शत्रु मित्र आदि परपदार्थों में आत्मीयता की कल्पना तू छोड़ दे। सहज स्वतत्व का उपयोग शान्तिदान में समर्थ - जो मनुष्य समस्त जीवो में उस सामान्य तत्व को निरख सकता हैजिस तत्व की अपेक्षा से सब समान है, तो उसने ज्ञानप्रकाश पाया समझिये। जो इन अनन्त जीवो मे से यह मेरा है, यह गैर है, ऐसी बुद्धि बनाता है वह मोह के पक्ष से रंगा हुआ है। उसे शान्ति का मार्ग कहाँ से मिलेगा, वह तो अपनी राग वेदना को ही शान्त करने का श्रम करता रहेगा, ये दृश्यमान पदार्थ तेरे कुछ 138
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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